सजल उर मित्र

अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता के अपने लोकप्रिय स्तंभ 
'कभी-कभार' में लिखा :

अपना यह रुझान किसी कदर छिपाया नहीं जाता कि इस समय हिंदी में जिस अखबारी और अंतर्ध्वनिहीन भाषा में ज्यादातर कविता लिखी जा रही है और कविता से जातीय स्मृति के गायब या कम से कम निष्क्रिय होने की स्थिति बनी हुई है, अगर कोई कुछ पुरानी उक्तियों - बिंबों या शब्दसंपदा को फिर से कविता की काया में लाने की कोशिश करता है तो उस पर ध्यान देने का मन होता है । बरसों पहले बनारस में पुष्पिता से भेंट हुई थी : जो कृष्णमूर्ति से प्रभावित और विद्यानिवास मिश्र के निकट थीं । फिर वे सूरीनाम चली गईं और इन दिनों हालैंड में हैं । वहां से वे पत्रिका निकालने और एक सांस्कृतिक केंद्र स्थापित करने का उद्यम कर रही हैं; इस सिलसिले में वे फ्रेंकफर्ट मिलने भी आईं थीं । इस बीच राधाकृष्ण प्रकाशन द्धारा प्रकाशित उनके प्रेम कविता संग्रह को देखने का अवसर मिला । लगा कि इन कविताओं को अलक्षित नहीं जाना चाहिए । एक अंश है :

मैं जानती हूँ तुम्हें
जैसे धरती जानती है जल पीना
और जल जानता है धरती में समाना
मैं जानती हूँ तुम्हें
जैसे फूल जानता है अपना फल, अपना बीज
मैं जानती हूँ तुम्हें
जैसे हवाएँ पहचानती हैं मानसूनी बादल
बादल जानते हैं धरती की प्यास
'मन के अंतःपुर का पाहन', 'आकांक्षा का अल्पना-लोक', 'सौर-मंडल निरखता है आँसू', 'भाषा-समुद्र', 'तिथियों के अंकों में', 'प्रणय का कल्प-वृक्ष', 'सहचर सरिता', 'नयनों की अनयन पारदर्शी झील', 'हथेलियों के आकाश में सूर्योदय', 'शब्दों के पूर्वज', जैसे कई चमकते शब्दसमूह हैं । यह सही है कि कहीं-कहीं विस्फीति है पर किसी कवयित्री का एक पूरा प्रेम संग्रह इधर बहुत दिनों बाद देखने में आया है । दो और अंश हैं :

लोकगीतों की तरह
मन-कथा कहता है जो
किस्सा-गो की तरह
देह के भीतर
मन की खंजड़ी पर
ध्वनित होता है
देह का निर्गुण और सगुण
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तुम
मेरी कलाई में
घड़ी की तरह
बंधे हो
तुम्हारी घड़ी में है
मेरा अंचल दिन
ठहरी-ठिठकी रात
तुम्हारी घड़ी-सुइयों में
प्रतीक्षारत है मेरा समय ।

(17 दिसंबर 2006)

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