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मई, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।। प्रेम का पर्याय ।।

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नदी जानती है चाँद का सुख जब सारी रात चाँद खेलता है वक्ष से कोख तक नदी की मछलियों को बनाता है रुपहला । चाँद और नदी के अभिसार का अभिलेख हैं रुपहली मछलियाँ वे नदी की देह में खोजती हैं चाँदनी को जो घुल गई है नदी की देह में प्रेम का पर्याय बन कर जैसे तुम मुझमें । नदी के बहाव में है नदी के प्यार की धुन ध्वनि से शब्द बनाने के लिए । चाँद सीखता है नदी से प्रेम की भाषा चाँदनी बनकर नदी में घुल कर रुपहली स्याही से तरंगों में गाता है प्यार का लहरिया संगीत और लिखता है प्रणय की नई भाषा जैसे मैं तुम्हारी साँसों से खींचती हूँ प्रेम की प्राण-शक्ति अपने शब्दों की चेतना के लिए कि वे जब खुलें और खोलें अपना मौन तब रचें प्रेम की अमिट प्राकृतिक भाषा ।

।। प्रकृति में तुम ।।

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सूर्य की चमक में तुम्हारा ताप है हवाओं में तुम्हारी साँस है पाँखुरी की कोमलता में तुम्हारा स्पर्श सुगंध में तुम्हारी पहचान । जब जीना होता है तुम्हें प्रकृति में खड़ी हो जाती हूँ और आँखें महसूस करती हैं अपने भीतर तुम्हें । मैं अपनी परछाईं में देखती हूँ तुम्हें परछाईं के काग़ज़ पर लिखती हूँ गहरी परछाईं के प्रणयजीवी शब्द । तुम मेरी आँखों के भीतर जो प्यार की पृथ्वी रचते हो उसे मैं शब्द की प्रकृति में घटित करती हूँ ।

दो कविताएँ

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।। आत्म विसर्जन ।। वसुधा सूरज से अर्जित करती है अपना दिवस । साँसें हवाओं से अर्जित करती हैं अपने लिए धड़कनें । नदी से अर्जित करनी पड़ती है जल और पवित्रता । ईश्वर से अर्जित करना पड़ता है उसका आशीर्वाद । सूर्य से अर्जित करते हैं ताप और ऊर्जा । वैसे ही तुमसे अर्जित करते हैं तुम्हें आत्म-विसर्जन में । ।। आत्म-निवेदन ।। मेरे भीतर छूट गया है तुम्हारी आँखों का लिखा चाहतों का पत्र फड़फड़ाता बेचैन तुम्हारी आँखों की तरह । तुम्हारी पलकों की बरौनियाँ मुझमें लिखती हैं स्मृतियों के गहरे सुख अन 'जी' आकांक्षाओं की प्यास । मेरे भीतर शेष है तुम्हारे प्रणयालिंगन की स्मरणीय छुअन उस परिधि के भीतर समाकर घुल जाती हूँ स्नेह में और बन जाती हूँ नेह-सरिता । तुम्हारी परछाईं में मिल जाती है मेरी परछाईं एकालोप । 

।। सर्वस्व ।।

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साँस ले रहे हैं अधरों में अधर आँखों में आँखें साँसों में साँसें हथेली में स्पर्श । ह्रदय में धड़क रही हैं तुम्हारी धड़कनें अनहद नाद की तरह । अपने सर्वांग में मैं जीती हूँ तुम्हारा सर्वस्व तुम्हारे शिवत्व को साध रही हूँ अपनी शक्ति में तुममें खुद को खोकर ही जाना प्रेम में जीना ही अर्धनारीश्वर हो जाना है । सर्वस्व विसर्जन की समर्पणी साधना के बाद देह की काँति शक्ति के रूप में भीतर ही भीतर रच रही है अंतरंग प्रेम प्रेम में देह के भीतर जाग उठती है प्रेम-देह ध्वनित होने लगते हैं आत्मा के प्रणय-शब्द ओठों को कहना आ जाता है अपने मन की बात । देह के रंध्र-रंध्र में बन जाता है प्रेम रस का प्रणय-कोश । जानती है जिसे सिर्फ प्रणय-देह रचती है अनुभूतियों का विलक्षण अर्थ-कोश कालिदास के शकुंतला की स्पर्श-स्मृति । प्रेम में देह के भीतर जाग उठती है प्रकृति की प्रेम-देह देह-शिला के शैल अंतःनिर्झरिणी से भीग उठते हैं देह का पत्थर पदार्थ की तरह पिघल उठता है । प्रणय में सम्पूर्ण

।। अनंग पुष्प ।।

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तुम प्रेम का शब्द हो विदेह प्रणय की सुकोमल देह अनंग पुष्प की साकार सुगंध । अनुभूति का अभिव्यक्त रूप अजस्र उष्म अमृत-कुंड जिसमें नहाती और तपती है देह प्रणय की ज्वालामुखी आँच में लावा के सुख को जानने के लिए । अपनी ही सांसों की हिमानी हवाओं में बर्फ होती हुई स्मृतियों के स्वप्न से पिघलती है अपनी ही तृषा-तृप्ति के लिए पीती हूँ अपनी ही देह का पिघलाव तुम्हारे सामने न होने पर दर्द से जन्मे आँसुओं को दर्द से जिया है । प्रतीक्षा की आग के ताप को आँसू चुप नदी की तरह पीती है प्रतीक्षा के प्रवाह में टूटी लकीरें तोड़ती हैं संवेदनाओं का साहस ।

।। चित्त का अन्नप्राशन ।।

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नौकरी की पहली कमाई की तरह हथेली में महसूस होता है प्रणय का प्रथम-स्पर्श । चित्त का अन्नप्राशन है प्रेम अनाज का स्वाद जैसे जानती है देह प्रणयानुभूति की भींज से सिंच उठती है मन-वसुधा जैसे पहली बार दर्पण के सामने खड़ा होता है मन अपने प्रेम के साथ प्रेम में एक साथ छूते और जीते हैं सारी ऋतुएँ देह-भीतर अवतार लेती है नवातुर प्रणय देह मानव-देह से इतर बहुत पवित्र स्पर्श में होता है जहाँ ईश्वरीय जादू कि पूरी देह में जाग उठता है पृथ्वी का वसंत । अन्तर की अन्तःसलिला से रिस उठती है भीतर-ही-भीतर राग-सरिता और लगता है प्रणय घटित होने से पूर्व देह सिर्फ तट था रेतीला । 

।। अमृत स्याही ।।

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तुम्हारी आँखें सेती हैं दूसरों के लिए सपने चिड़िया की तरह दूसरों को सुख देने की खोज में लगी तुम्हारी आँखें रचती हैं सुख अपनी निर्मल झील में तुम्हारी आँखों के सौंदर्य को पीती हैं मेरी आँखें ओंठ बनकर जिसमें रिसता है सौंदर्य अधर तक के लिए ट्यूलिप सी तुम्हारी आँखों तक पहुँचकर बुझ जाती है अकेलेपन की आग तुम्हारी आँखों से लेती हूँ दुनिया देखने और रचने की दृष्टि और शक्ति । तुम्हारी आँखों के लिए बनाना चाहती हूँ दुनिया जिसमें आँसू न हों । आँसू दुनिया के लिए आँख का पानी है लेकिन तुम्हारे लिए दुःख की आग है । तुम्हारी आँखों से पैदा होते हैं सपने सूनी, खाली और डरी हुई लेकिन भोली और मासूम आँखों के लिए । तुम्हारी आँखों से होकर जाते हैं शांति पथ पहुँचते हैं अथाह सागर तट तक धोती हूँ जिससे हिंसक घाव । 

।। शब्द-सच ।।

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                                                तुम्हारे शब्द भावना की स्वर्णिम गिन्नी हैं ह्रदय के टकसाल में निर्मित प्रेम के एक ही सिक्के हैं हम दोनों जिसकी पहचान और धातु एक है । अपने संबंधों के लिए रची है मैंने एक अनूठी भाषा जिसके शब्द रातों के एकांत और नींद के सपनों ने रचे हैं अपना प्रेम अलौकिक प्रणय नदी का लौकिक तट प्रणय की पूर्णिमा का सौंदर्यबोधी चाँद मन-भीतर पिघल कर रुपहला समुद्र बन कर समा जाता है आँखों की पृथ्वी में अपनी जगह बनाते हुए महासागर की तरह ... । 

।। अपनापन ।।

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शब्द तुम्हारे हल्दी की गाँठ रक्त जल में उतरता है रंग । शब्द तुम्हारे आषाढ़ी मेघ आस्था की माटी में रमती है सोंधी नमी । शब्द तुम्हारे सहस्त्र पँखुरी-पुष्प आँखों के आकाश में उगता है युग वसंत । शब्दों की आँखों से पीती हूँ उजाला आला भर अँधेरे से सूने डरे घबराये वक्ष के लिए । तुममें घुले बगैर जानना कठिन है प्यार का अपनापन आँखों में समा जाता है जैसे सब कुछ वैसे ही तुममें मेरा हर कुछ । ऊँगलियों पर दिन गिनने में आँखें भूल जाती हैं नाखून काटना बढ़े हुए नाखून काटते हैं समय-सुरंग शकटार की तरह । मन की अंजलि में स्मृतियों की परछाईं हैं जो घुलती हैं आत्मा की आँखों में और आँसू बनकर ठहर जाती हैं कभी आँखों के बाहर कभी आँखों के भीतर । मन के अधरों में धरा है प्रणयामृत शब्द बनकर कभी ओठों से बाहर कभी ओठों के भीतर ।

।। आकाश-गंगा ।।

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तुम्हारे बिना समय - नदी की तरह बहता है मुझमें । मैं नहाती हूँ भय की नदी में जहाँ डसता है अकेलेपन का साँप कई बार । मन-माटी को बनाती हूँ पथरीला तराश कर जिसे तुमने बनाया है मोहक सुख की तिथियाँ समाधिस्थ होती हैं समय की माटी में अपने मौन के भीतर जीती हूँ तुम्हारा ईश्वरीय प्रेम चुप्पी में होता है तुम्हारा सलीकेदार अपनापन । अकेले के अँधेरेपन में तुम्हारा नाम ब्रह्मांड का एक अंग देह की आकाश-गंगा में तैरकर आँखें पार उतर जाना चाहती हैं ठहरे हुए समय से मोक्ष के लिए ।

।। स्मृतियों का स्पर्श ।।

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अकेलापन पतझर की तरह उड़ता और फड़फड़ाता है । तुम्हारी तस्वीर से उतारता है स्मृतियों का स्पर्श देह मुलायम होने लगती है तुम्हारी चाहत की तरह । तुम्हारे शब्द सपनों की आँखें हैं जिनसे रचती हूँ भविष्य । तुम्हारी हथेलियों ने छोड़ा है भावी रेखाओं का छापा जैसे मेरे हृदय ने छोड़ा है अपनेपन का अविस्मरणीय स्मृति-चित्र तुम्हारे प्राणों में मैं अपने पूर्ण को देखती हूँ तुम्हारी साँसों से लेना चाहती हूँ साँसों की शक्ति । मन-गर्भ की दीवारों में लिखा है तुम्हारा नाम रक्त में सान रहा है जो तुम्हारे प्रणय का रस-रंग-गंध ।

।। स्वप्न शक्ति ।।

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मैं सुनती हूँ तुम्हें सुनकर छूती हूँ तुम्हें तुम्हारे स्वप्न आवाज़ बनकर गूँजते हैं भीतर कि अंतरिक्ष हो जाती हूँ तुम्हारे ओठों के शब्दों से चुराकर सुना है तुम्हें तुमसे ही तुम्हें छुपाकर गुना है तुम्हें तुम्हारा ऐकान्तिक मौन-विलाप तुमसे दूर होकर मैंने दूर होकर भी अपनी धड़कनों की तरह अनुभव किया है उसे जैसे नदी जीती है अपने भीतर पूर्णिमा का चाँद पूर्ण सूर्योदय झिलमिलाते सितारे और चुपचाप पीती है ऋतुओं की हवाएँ ...।

।। पुनर्जन्म का सुख ।।

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वह मुझे सुनता है अपने पहले प्यार की तरह वह मुझसे खेलता है बचपन की यादों की तरह वह मुझे खिलाता है अपने सुख का पहला कौर वह मुझे देखता है अपने भविष्य की तरह वह मुझे सहेजता है अपनी हथेलियों की तरह वह मुझे चूमता है अपने अनमोल सपने की तरह वह मेरे मौन को पढ़ता है सबसे सशक्त संवाद की तरह वह मुझे रचता है अपने प्यार से वह मुझे देता है पुनर्जन्म का सुख अपनी संतान को जन्म देने से पहले वह मुझमें जनमाता है प्यार सारी स्तब्ध गति के बावजूद मैं उस तरह नहीं चल रही जैसे दुनिया दौड़ रही है क्योंकि मैं जानती हूँ जहाँ गति होती है वहां गहराई नहीं होती है बहुत ।

।। अनुभूति-रहस्य ।।

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प्रेम के क्षणों में अनुभूतियों का सुख रहस्यमय होता है । तुम्हारे सुख का रिसता हुआ रस मेरे प्रणय का रस है जो तुमसे होकर मुझ तक पहुँचता है । प्रेम एकात्म अनुभूतियों की अविस्मरणीय दैहिक पहचान है । प्रेम में मन सपने सजाता है तन के लिए प्यार में मन-तन वसुधा से समुद्र बन जाता है देह की धरती समा जाती है मन के समुद्र में एक दूसरे में अनन्य राग । अनुराग की साँसों में माटी से पानी में बदल जाती है संपूर्ण देह । देह के भीतर के बर्फीले पर्वत बादल की तरह उड़ने लगते हैं देहाकाश में इन्द्रधनुषी इच्छाओं के बीच । प्रेम में भाषा का कोई काज नहीं होता है प्यार ही प्यार की भाषा है देश-काल की सीमाओं से परे ...। 

'भारत भवन' में हुए पुष्पिता अवस्थी के कविता पाठ की याद

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पुष्पिता अवस्थी के करीब साढ़े तीन वर्ष पहले, 4 नबंवर 2009 को भोपाल स्थित 'भारत भवन' में आयोजित हुए कविता पाठ की स्मृतियों को साझा करते हुए भोपाल के एक पत्रकर और लेखक ने उक्त कार्यक्रम का निमंत्रण पत्र हमें उपलब्ध कराया है ।  समकालीन कला एवं संस्कृति के केंद्र के रूप में विख्यात 'भारत भवन' में कविता पाठ के लिए हुई पुष्पिता अवस्थी की उपस्थिति का खास महत्व इस कारण से है क्योंकि 'भारत भवन' की पहचान उसके स्थापत्या के सौंदर्य के कारण नहीं, बल्कि उन लोगों के निर्णायक योगदान की वजह से है जो उसके संचालन के लिए जिम्मेदार रहे हैं । उनके उत्साह, उनके विवेक और उनकी असाधारण ऊर्जा के अभाव में, यह इमारत लोहा-लक्कड़ और चूना-पत्थर की एक बेजान इमारत भर होती । 'भारत भवन' में आयोजित हुए पुष्पिता अवस्थी के कविता-पाठ तथा उनके कविता संग्रह 'अंतर्ध्वनि' के लोकार्पण कार्यक्रम को याद करते हुए 'भारत भवन' के उद्घाटन समारोह को याद करना प्रासंगिक भी होगा और दिलचस्प भी । 'भारत भवन' के उद्घाटन के मौके पर देश के तमाम प्रमुख कलाकारों, संगीतज्ञों, ल

।। नयन-गेह ।।

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ज़िन्दगी की पत्र-पेटिका में चिट्ठी की तरह आए और ह्रदय का प्रेम-पत्र बन गए । मीठे उजालेपन में चाँदनी सारे सितारों की चमक में समा चुकी होती है जब चाँद सोता है आँखों में सपना बन कर । एकाकीपन की मोमबत्ती की रोशनी में कभी पिघलते हैं शब्द और कभी मैं ... । भीतर की साँस रोक कर शब्दों से खींचती हूँ साँस पसीने से तर-ब-तर मन की उमसती कसक को पसीजी हथेली में रखती हूँ सुकोमल याद से भरकर शब्दों की मुट्ठी में है जादुई यथार्थ शब्द की ह्रदय-मंजूषा में गहरे एकांत में चुपचाप जन्म लेते हैं शब्द जैसे आधी रात को बदलती है तारीख दिन बदलने से पहले हवाओं की साँस ठहर जाती है क्षण भर को जब सितारे लिखते हैं नई तारीख ।  सूरज, हर सुबह नई तारीख में भरता है धूप ऐसे ही प्रेम भीतर के अक्षय शब्द-स्रोत को पूरता है जैसे पर्वत जनते हैं अपनी स्नेह-सरिता को । शब्दों की शहदीली चमकी छुअन को पहचानते हैं ओंठ जैसे कवि के ओंठ पहचानते हैं अपनी कविता के शब्द वैसे ही कविता के अधर पहचानते हैं कवि के ओंठ शब्दों की तरह शब्दों में प्रेम की तरह ।