।। उद्घोष ।।

























साँसों की हवाओं में
धीरे-धीरे रम गया है प्रेम का मौन
जैसे प्रकृति जीती है सन्नाटा

संगम तट पर
हथेलियों ने चुनी हैं
कुछ सीपियाँ
और मन में तुम्हारी स्मृतियाँ
प्रेम के नवोन्मेष के लिए ।

सूर्य स्पर्श करता है जैसे
प्रपात
कुंड
झरना
सरिता
वैसे ही तुम हमें
बहुत दूर से
अंतरंग स्पर्श ।

चाँद जैसे स्पर्श करता है
उष्ण पृथ्वी
तपी नदी
सुरम्य घाटी
उन्नत वृक्ष-शिखर
वैसे ही मैं तुम्हें
समुद्र-पार से छूती हूँ
तुम्हारे मन की धरती
अदृश्य पर दृश्य ।

जैसे आत्मा
स्पर्श करती है परमात्मा
और परमात्मा
थामे रहता है आत्मा

दो परछाईं
(जैसे अगल-बगल होकर)
एक होती हैं
वैसे ही
तुम मुझमें
मैं तुममें ।

प्रणय की साक्षी है प्राणाग्नि
अधरों ने पलाश-पुष्प बन
तिलक किया है प्रणय भाल पर
मन-मृग की कस्तूरी जहाँ सुगन्धित है
सांसों ने पढ़े हैं
अभिमंत्रित सिद्ध आदिमंत्र ...।

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