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सितंबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।। कथा ।।

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देखते-देखते सूख गया पेड़ देखते-देखते कट गया पेड़ कई टुकड़ों में जैसे चिता में जल जाती है मानव देह देखते-देखते । वृक्षों के नीचे की सूख गई धरती जड़ों को नहीं मिला धरती का दूध । हवा-धूप और बरसात के बावजूद वृक्ष नहीं जी सकता धरती के बिना । वृक्ष ! धरती का संरक्षक था जैसे सूनी हो गई है धरती पेड़ के बिना उठ गया है जैसे पर्यावरण का पहरुआ । घर के बाहर सदा बैठा घर का वयोवृद्ध सदस्य बिना पूछे अचानक जैसे छोड़ गया हमें वह देखता था हमें कंधों पर कबूतर करते थे उसके कलरव उसकी बाँहों में लटकती थी झरी बर्फ उसकी देह को भिगोती थी बरसात । ठंडी हवाओं को अपनी छाती पर रोककर बचाता था वह हमें और हमारा घर उसकी छाया जीती थी हमारी आँखें हम अकेले हो गए हैं जैसे हमारे भीतर से कुछ उठ गया हो । कटे वृक्ष की जगह आकाश ने भर दी है सूर्य किरणों ने वहाँ अपनी रेखाएँ खींच दी हैं धूप ने अपना ताप भर दिया है वहाँ । फिर भी एक पेड़ ने हमें छोड़कर न भरने वाली जगह खाली कर दी है ।

।। स्वाद के अभाव में ।।

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वह नहीं हँस पाती है अपनी हँसी ओंठ भूल गए हैं मुस्कराहट का सुख नहीं जागती है अब वैसी भूख स्वाद के अभाव में आँखें नहीं जानती हैं नींद सपने में भी रोती हैं काँप-सिहरकर एक पेड़ जैसे जीता है माटी के भीतर अपनी जड़ें फेंक कर जीने का सुख औरत नहीं जान पाती है वैसे ही एक नदी जैसे बहती है धरती के बीच औरत बहते हुए भी नहीं जान पाती है वह सुख ।

।। आँखों के घर में ।।

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रात भर आँसू लीपते रहते हैं आँखों का घर अँगूठा लगाता है ढांढस का तिलक हथेलियाँ आँकती हैं धैर्य के छापे जैसे आदिवासी घर-दीवारों पर होते हैं छापे और चित्रकथा उत्सव और मौन के संकेत चिन्ह सन्नाटे में सिसकियाँ गाती रहती हैं हिचकियों की टेक पर व्यथा की लोक धुनें । कार्तिक के चाँद से आँखें कहती रहती हैं मन के उलाहने । चाँद सुनता है ओठों के उपालम्भ चाँद के मन की आँखों में आँखें डाल आँखें सौंपती रहती हैं अकेलेपन के आँसू और दुःख की ऐंठन । अनजाने, अनचाहे मिलता है जो कुछ            विध्वंस की तपन            टूटन की टुकड़ियाँ            सूखने की यंत्रणा            सीलन और दरारें            मीठी कड़ुआहट            और जोशीला ज़हर तुम्हारे 'होने भर के' सुख का वर्क लगाकर छुपा लेती हूँ सबकुछ फड़फड़ाती रुपहली चमक के आगोश में आँखों के कुंड में भरे खून के आँसूओं के गीले डरावनेपन को घोल देती हूँ तुम्हारे नाम में खुद को खाली करने की कोशिश में जहाँ तुम्हारा अपनापन

।। नहीं पहचान पा रहा है कोई ।।

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आँखों में बैठी-बैठी दृष्टि की उँगलियाँ छूती हैं यूरोप की जादुई दुनिया शामिल है जिसमें आदमी                       औरत                       और उनका तथाकथित प्रेम भी दृष्टि-उँगलियाँ रहती हैं आँखों की मुट्ठियों के साँचे भीतर बहुत चुपचाप वे कुछ नहीं पकड़ना-छूना चाहतीं मन संगमरमर की तरह चिकनाकर पथरा गया है  नहीं पकड़ पाता कोई मन खेल खेलने के नाम पर भी मुस्कराना ओठों का व्यायाम भर ह्रदय की मुस्कराहट नहीं आँसू, बहने के बाद नहीं सूखते सूखे आँसू ही बहते हैं अब गीला दुःख भीतर ही भीतर गलाता रहता है चुपचाप सबकुछ चेहरे की मुस्कराहट आधुनिक सभ्यता की प्लास्टिक सर्जरी की तरह भीतर का कुछ भी नहीं आने देती है बाहर देह भर बची है सिर्फ मानव पहचान की खुद से खुद को नहीं पहचान पा रहा कोई लोग पहचानते हैं सिर्फ डॉलर, यूरो और उसकी निकटवर्ती दुनिया किसी भी संबंध से पहले और किसी भी संबंध के बाद ।

।। पृथ्वी अनुभव ।।

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नदी को नदी की तरह सुनो सुनाई देगी नदी अपनी अंतरंग आवाज की तरह । चाँद को चाँद की तरह देखो दिखाई देगी चाँदनी अपनी आँख की तरह । धरती को धरती की तरह अनुभव करो महसूस होगी पृथ्वी अपनी तृप्ति की तरह । प्रकृति को प्रकृति की तरह स्पर्श करो तुममें उतर जायेगी प्रकृति प्रेम सुख की तरह ।

।। दस्तक ।।

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दरवाज़े बने होते हैं दस्तकों के लिए । दस्तक से तड़प उठते हैं किवाड़ के रोम-रोम । दरवाज़े सुनना जानते हैं दस्तक पर चुप रहते हैं गरीब के सपनों की तरह । दरवाज़े जानते हैं दस्तकों की भाषा । सुनवाई न होने पर दरवाज़े छोड़ देते हैं दीवारें और दीवारों के घर ।

।। सेंट लूशिया द्धीप ।।

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कैरीबियाई सागर का सौंदर्य प्रतिनिधि सेंट लूशिया द्धीप जिसने जने नोबेल पुरस्कार विजेता कवि डेरक वालकॉट और अर्थशास्त्री आकाश-अंग-वस्त्रम को देह पर ओढ़े हुए नीलिमा को जीता है अपने वक्षाकाश में सूर्य के स्वर्णिम स्वप्निल कशीदे काढ़ता है नित्य अपने अंगरखे में कैरीबियाई द्धीपों का जल-जीवन-जनक-सागर नील-मंजुषा-रत्ननिधि संपन्न मौन ही रहता है आतुर अपने विविधवर्णी असंख्य द्धीपों के प्रति रुपहली-रेतीली शैय्या पर सोये-जागे सागर के वक्ष भीतर जीती तैरती रंगीन मछलियाँ जल जन्नत की तितलियाँ रंगों का पनीला सौंदर्य आँखों से पीती सौंदर्यप्रेमी गोताखोरों से अभयजीती मछलियाँ खेलती हैं उनकी हथेलियों से और देह चूम हल्के से तैर जाती हैं लहरों में समुद्र का अंतरंग उनका जलाकाश तैरना ही उनकी उड़ान कैरीबियाई द्धीप देश रचते हैं अपने तरह की कैरब बीयर कि जैसे सेंट लूसिया द्धीप द्धीप से अधिक नशे और सौंदर्य की मधुशाला हो पर एक्बेरियम की मछलियाँ पिंजड़ों की चिड़ियाँ फड़फड़ाहट में जीती हैं जो अपनी उड़ान हम सब की तरह ।

।। आयक्स एरीना में ।।

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5 मई 2013 से पहले कभी नहीं, कोच फ्रान्क द बूर ने बजायी होंगी इतनी सीटियाँ शायद अपने जीवन में भी नहीं और लड़कियों के लिए तो कभी नहीं हालैंड देश के लिए फ्राई दाख़ स्वतंत्रता दिवस 5 मई जहाँ लोग आपस में कह रहे थे बीयर है स्वतंत्रता तो कोई कहता संगीत है फ्राई हाइड लेकिन आयक्स एरीना में फुटबॉल खिलाड़ी 5 मई को 5 गोल बनाकर आयक्स क्लब देश का फुटबॉल चैम्पियन होकर पाँचों उँगलियों की मुट्ठी तानकर कोच फ्रान्क द बूर के साथ 'एक' होकर घोषणा कर रहे थे कि फुटबॉल खेल है फ्राई हाइड चैम्पियनशिप है फ्राई हाइड सच्चेमन और सच्चेपन का खेल है फ्राई हाइड खिला खुश जीवन है फ्राई हाइड प्रेम है फ्राई हाइड कोच फ्रान्क द बूर ने 5 मई 2013 को आयक्स एरीना में अपने जुड़वाँ भाई रोनाल्ड के नवसिखवे खिलाड़ियों को वर्ष भर में किया दक्ष और बना दिया देश का फुटबॉल चैम्पियन खिलाड़ी जबकि अपने एरीना घर में ही ए जेड क्लब के कीपर एस्तबान को लाल कॉर्ड मिलने पर आग बबूला हो उठे थे कोच खेट यान फरबेक कूद पड़े थे अम्पायर और खिलाड़ियों के बीच खेल को अपने हाथ में लेकर खिलाड़ियों

।। मधुबन के लिए ।।

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बच्चे अपने खिलौनों में छोड़ जाते हैं अपना खेलना निश्छल शैशव कि खिलौने जीवंत और जानदार लगते हैं बच्चों की तरह । बच्चों के अर्थहीन बोलों में होता है जीवन का अर्थ ध्वनि-शोर में रचते हैं जीवन का भाष्य जिसे रचती है आत्मा । बच्चों की गतिहीन गति में होती है सब कुछ छू लेने की आतुरता उनके तलवों से धरती पर छूट जाती है उनके आवेग की गति कि उनके सामने न होने पर भी ये चलते हुए लिपट जाते हैं यहाँ-वहाँ से । बच्चों के पास होती है अपनी एक विशेष ऋतु जिसमें वे खिलते हैं, खेलते हैं और फलते हैं हम सबके मधुबन के लिए ।

।। खड़िया ।।

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चाँद ने अपना कोई घर नहीं बनाया दीवारों से बाहर रहने के लिए । सूरज मकानों से बाहर रहता है दीवारों को तपाने और पिघलाने के लिए प्रकृति में सृष्टि के लिए । चाँद वृक्षों की पात हथेली की मुट्ठी में अपनी रोशनी को बनाकर रखता है सितारा चाँद घरों के बाहर अपनी रोशनी से आवाज़ देता है कि अँधेरे में मेरी उजली चमक को देखो लगता है मैंने श्यामपट्ट खड़िया से लिखी है ईश्वर की उजली सृष्टि सूर्य के अस्त होने पर अंधेरों के खिलाफ़ ।

।। बीज ।।

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औरत सहती रहती है और चुप रहती है जैसे रात । औरत सुलगती रहती है और शांत रहती है जैसे चिंगारी । औरत बढ़ती रहती है सीमाओं में जीती रहती है जैसे नदी । औरत फूलती-फलती है पर सदा भूखी रहती है जैसे वृक्ष । औरत झरती और बरसती रहती है और सदैव प्यासी रहती है जैसे बादल । औरत बनाती है घर पर हमेशा रहती है बेघर जैसे पक्षी । औरत बुलंद आवाज़ है पर चुप रहती है जैसे शब्द । औरत जन्मती है आदमी पर गुलाम रहती है सदा जैसे बीज ।

।। बच्चों के खेल ।।

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बच्चे देखे गए सपनों से निकालते हैं नए सपने जैसे उसी कपड़े से निकालते हैं धागा फटे के रफू के लिए । बच्चे मोर पंख में देखते हैं मोर और पिता में परमपिता । पिता ही परमेश्वर और माँ सर्वस्व । कागज़ की हवाई जहाज की फूँक उड़ान में उड़ते देखते हैं अपने स्वप्नों का जहाज । रेत के घरौंदे में देखते हैं अपना पूरा घर । वे खेल-खेल में खेलते हैं जीवन और हम सब जीवन में खेलते हैं खेल ।

।। गीला पतझर ।।

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नील आँखी यूरोप का आकाश वसंत-ऋतु में जीता है नीलिमा सुनील आकाश गगन का वसंत है ।   निलाई जानने वाला आकाश पिघलकर उतरता है नीलमणि की तरह माँ के गर्भ में नवजात शिशु की 'नीली आँख' बनकर । धरती के वसंत में रमने और रमणीयता के लिए टर्की के ट्युलिप-पुष्प अपनी कलम से लिखते हैं वसंत का रंगीनी अभिलेख । शीत में ठिठुरता है यूरोप गीला पतझर ओढ़कर सो रहती है धरती धरती की देह पर झरता है पतझर ।

।। सब कुछ ।।

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धूप निचोड़ लेती है देह के रक्त से पसीना । माटी के बीज बीज से पत्ते पत्ते से वृक्ष और वृक्ष से निकलवा लेती है धूप सब कुछ । धूप सब कुछ सहेज लेती है धरती से उसका सर्वस्व और सौंप देती है प्रतिदान में अपना अविरल स्वर्णताप कि जैसे प्रणय का हो यह अपना विलक्षण अपनापन ।

।। नदी का सुख ।।

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नदी के पास अपना दर्पण है जिसमें नदी देखती है ख़ुद को आकाश के साथ । नदी के पास अपनी भाषा है प्रवाह में ही उसका उच्चार । नदी बहती और बोलती है छूती और पकड़ती है दिखती और छुप जाती है कभी शिलाओं बीच कभी अंतःसलिला बन । नदी के पास यादें हैं ऋतुओं के गंधमयी नृत्य की नदी के पास स्मृतियाँ हैं सूर्य के तपे हुए स्वर्णिम ताप की हवाओं के किस्से हैं परी लोक की कथाओं के । नदी के पास तड़पती चपलता है जिसे मछलियाँ जानती हैं । नदी के पास सितारों के आँसू हैं रात का गीला दुःख है बच्चों की हँसी की सुगंध है नाव-सी आकांक्षाएँ हैं बच्चों का उत्साह है । अकेले में नदी तट पर बैठती हूँ अपनी आँखों के तट पर बैठे हुए तुम्हारी हथेली से आँसू पोंछती हूँ ।

।। अँधेरा ।।

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उजाला बोलता है चुपचाप शब्द जिसको दिखना-दिखाना है । उजाला खोलता है चुपचाप रहस्य जो उसके विरुद्ध हैं । अद्भुत उजाला निःशब्द मौन होता है ईश्वरीय सृष्टि-शक्ति उस मौन में बाँचती है वेदों के सूक्त । अँधेरा बोलता है अँधेपन की भाषा अपराध के जोखिम डरावनी गूँज सन्नाटे का शोर भय के शब्द । अँधेरा बोलता है जीवन के मृत होने की शून्य भाषा कालिख के रहस्य अँधेरे की आँखों में मृत्यु के शब्द होते हैं अँधेरे के ओठों में चीख अँधेरे की साँसों में मृत्यु की डरावनी परछाईं ।