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अक्तूबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।। अनगिनत नदियाँ ।।

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प्रेम के हठ योग में जाग्रत है प्रेम की कुंडलिनी । रंध्र-रंध्र में सिद्ध है साधना । पोर-पोर बना है अमृत-कुंड । प्रणय-सुषमा प्रस्फुटित है सुषुम्ना नाड़ी में कि देह में प्रवाहित हैं अनगिनत नदियाँ ।

।। झील का अनहद-नाद ।।

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शताब्दियाँ ढोती कोमो झील की तटवर्ती उपत्यकाओं में बसे गाँवों में तेरहवीं शताब्दी से बसी हैं इतिहास की बस्तियाँ । प्राचीन चर्च के स्थापत्य में बोलता है धर्म का इतिहास इतिहास की इमारतें खोलती हैं अतीत का रहस्य । सत्ता और धर्म के युद्ध का इतिहास सोया है आल्पस की कोमो और लोगानो घाटी में झूम रहा है झील की लहरियों में अतीत का विलक्षण इतिहास । वसंत और ग्रीष्म में झील के तट में गमक उठते हैं फूलों के रंगीले झुंड । रंगीन प्रकृति झील के आईने में देखती है अपना झिलमिलाता रंगीन सौंदर्य । झील का नीलाभी सौंदर्य कि जैसे पिघल उठे हों नीलम और पन्ना के पहाड़ प्रकृति के रसभरे आदेश से । झील के तटीले नगर-भीतर टँगी हैं पत्थर की ऐतिहासिक घंटियाँ जिनकी टन-टन सुनता है पथरिया आल्पस रात-दिन और जिसका संगीत गाती हैं अनवरत झील की तरंगें । तट से लग कर ही सुना जा सकता है जिसका अनहद नाद झील का अनहद नाद और जल के सौंदर्य में बिना डूबे ही पिया जा सकता है जल को जैसे आँखें जीती हैं झ

।। ग़रीब का चाँद ।।

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पूर्ण चाँद अपने रुपहले घट के अमृत को बनाकर रखता है तरल पारदर्शी नारियल फल भीतर चुपके से गहरी रात गए अनाथ शिशुओं का दूध बनने के लिए । निर्धन का धन सूरीनामी वन जिन पर ईंधन भर या हक़ छावनी छत भर जैसे गाय या बकरी का पगडंडियों की घास पर होता है हक़ । पत्तों की छतों पर पुरनिया टीन की छाजन पर चंदीली वर्क लगाता है चाँद ताज़ी बर्फी की तरह मीठी लगती है ग़रीब की झोपड़ी विश्राम के आनंद से भरपूर । रुपहले रंग की तरह पुत जाता है चाँद पूर्ण पृथ्वी पर बगैर किसी भेद के जंगल, नदी, पहाड़ को एक करता हुआ । घरों को अपने रुपहले अंकवार में भरता हुआ मेटता है गोरे-काले रंग के भेद को । पूर्ण चाँद प्रियाओं के कंठ में सौंदर्य का लोकगीत बनकर तरंगित हो उठता है जबकि रात गए सन्नाटे में झींगुर भी अपनी ड्यूटी से थककर सो चुका होता है नए कोलाहल के स्वप्न देखने के लिए ।

।। माँ ।।

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पृथ्वी छोड़कर माँ के जाने पर भी माँ बची रहती है संतान की देह में । संतान की देह माँ की पृथ्वी है माँ के देह त्यागने पर भी । माँ के जाने पर भी माँ बची रहती है प्राण बन कर । कठिन समय में शक्ति बनकर बची रहती है माँ । माँ के जाने पर भी बचपन की स्मृतियों में बची रहती है माँ । माँ अपने जाने पर भी बची रहती है अपनी संतानों में शुभकामनाएँ बन कर । माँ जाने पर भी कभी नहीं जाती है बच्चे बूढ़े हो जाएँ फिर भी ।

।। ईश्वर ।।

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दुःख में बचा है ईश्वर ईश्वर को खोजती हैं आँखें दुःख में अपनी आत्मा में खड़ा करती हैं ईश्वर दुःख के विरुद्ध बुद्ध बनकर ।

।। पुकारती है पुकार ।।

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अन्याय के विरुद्ध आत्मा चीखती है अक्सर पर, कोई नहीं सुनता सिवाय आत्मा के । झूठ के विरुद्ध आत्मा रोती है अक्सर पर, सिर्फ़ आँखें देखती हैं सच्चे आँसू । सच्चाई के लिए भूखी रहती है आत्मा प्रायः पर, कोई नहीं समझता है आत्मा की भूख । थककर अंततः उसकी आत्मा पुकारती है उसे ही अक्सर सिर्फ वही सुनती है अपनी चीख सिर्फ वही देखती है अपने आँसू सिर्फ वही समझती है अपनी भूख सिर्फ वही सुनती है अपनी गुहार और पुकारती है अपनी आत्मा को चुप हो जाने के लिए । वह जानती है क्योंकि सब एक किस्म के बहरे और अंधे हैं यहाँ वे नहीं सुनते हैं आत्मा की चीख वे नहीं देखते हैं आत्मा के आँसू ।

।। शब्द-बैकुंठ ।।

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बादल चुप होकर बरसते हैं मन-भीतर स्मृति की तरह । सुगंध मौन होकर चूमती है प्राण-अंतस साँसों की तरह । उमंग तितली-सा स्पर्श करती है मन को स्वप्न-स्मृति की तरह । विदेश प्रवास की कड़ी धूप में साथ रहती है प्रणय-परछाईं । सितारे अपने वक्ष में छुपाए रखते हैं प्रणय-रहस्य फिर भी आत्मा जानती है शब्दों के बैकुंठ में है प्रेम का अमृत ।

।। शब्दों के भीतर की आवाज़ ।।

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शब्दों से पुकारती हूँ तुम्हें तुम्हारे शब्द सुनते हैं मेरी गुहार । तुम्हारी हथेलियों से शब्द बनकर उतरी हुई हार्दिक संवेदनाएँ अवतरित होती हैं आहत वक्ष-भीतर अकेलेपन के विरुद्ध । बचपन में साध-साधकर सुलेख लिखी हुई कापियों के काग़ज़ से कभी नाव, कभी हवाई जहाज बनानेवाली ऊँगलियाँ लिखती हैं चिट्ठियाँ हवाई-यात्रा करते हुए शब्द विश्व के कई देशों की धरती और ध्वजा को छूते हुए लिखते हैं संबंधों का इतिहास । तुम्हारे शब्द अंतरिक्ष के भीतर गोताखोरी करते हुए डूब जाते हैं मेरे भीतर ।

दो कविताएँ

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  ।। अपने ही अंदर ।। आदमी के भीतर होती है एक औरत और औरत के भीतर होता है एक आदमी । आदमी अपनी जिंदगी में जीता है कई औरतें और औरत ज़िंदगी भर जीती है अपने भीतर का आदमी । औरत अपने पाँव में चलती है अपने भीतरी आदमी की चाल बहुत चुपचाप । आदमी अपने भीतर की औरत को जीता है दूसरी औरतों में और औरत जीती है अपने भीतर के आदमी को अपने ही अंदर । ।। शंख ध्वनि ।। स्त्री शब्दों में जीती है प्रेम पुरुष देह में जीता है प्रेम स्त्री आँखों में जीती है रात और पुरुष रात में जीता है स्त्री । स्त्री शंख ध्वनि में जीती है आस्था के स्वर पुरुष शंख देह में भोगता है विश्वास-रंग ।

।। छुअन ।।

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प्रेम घुलता है द्रव्य की तरह पिघलता है राग-प्रार्थना में लिप्त जाती है आत्मा । मुँदी पलकों के भीतर प्रेम का ईश्वर जुड़े हाथों के भीतर हाथ जोड़े है प्रेम । प्रेम में बगैर संकेत के देह से परे हो जाती है देह । रेखा की तरह मिट जाती है देह और अनुभव होती है आत्मा की छुअन ।

।। हवा ।।

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हवाओं में होती है आवाज़ अपने समय को जगाने की । चुप रहने वालों के खिलाफ़ बवंडर उठाने की । हवाएँ चुपचाप ही आँधी बन जाती हैं । हवाएँ बिना शोर के तूफ़ान ले आती हैं । हवाएँ हमेशा पैदा करती हैं आवाज़ प्रकृति के पर्यावरण को हवाएँ पोंछती हैं अपनी अलौकिक हथेली से । हवाएँ गूँजती हैं धरती में जैसे देह में साँस ।

दो कविताएँ

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  ।। चिट्ठी के शब्द ।। चिट्ठी के शब्द पढ़ने से भ्रूण में बदल जाते हैं मन के गर्भ में । वे विश्वास की शक्ल में बदलने लगते हैं । शब्दों की देह में आशाओं की धूप समाने लगती है और अँधेरे के विरुद्ध कुछ शब्द खड़े होकर रात ठेलने लगते हैं । ।। कैनवास ।। बच्चे अपने सपनों की दीवार पर पाँव के तलवे बनाता है लावा के रंग में और उसी में सूरज उगाता है । आकाश उसका नीला नहीं पीला है सूरज उसके लिए पीला नहीं लाल है । पेड़ का रंग उसने हरा ही चुना है उसी में उसका मन भरा है । बच्चे ने सपनों के रंग बदल दिए हैं अपने कल के कैनवास के लिए ।

।। समय के विरुद्ध ।।

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रेत में चिड़िया की तरह उड़ने के लिए फड़फड़ाती । नदी में मोर की तरह नाचने के लिए छटपटाती । आकाश में मछली की तरह तैरने के लिए तड़पती । विरोधी समय में मनःस्थितियाँ जागती हुई जीती है अँधेरे में उजाले के शब्द के लिए । शब्द से फैलेगा उजाला अँधेरे समय के विरुद्ध ।

।। भीड़ के भीतर ।।

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पवन छूती है नदी और लहर हो जाती है । पवन डुबकी लगाती है समुद्र में और तूफ़ान हो जाती है । पवन साँसों में समाकर प्राण बन जाती है और देखने लगती है सबकुछ आँखों में आँखें डालकर और चलने लगती है भीड़ के भीतर ।