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अप्रैल, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।। देश छोड़ने के बाद ।।

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देश छोड़ने के बाद वह रहती है अपने मन के देश में स्वजनों के स्व से बने स्वप्नों के देश में उँगलियों में गिनते हुए दिन मेँ वह काटती है अपने बढ़े हुए नाखून चन्द्राकार कटे हुए नूह मेँ याद आता है उसे अपने चाँद का नेह देश छोड़ने के बाद अमावस्या की अँधियारी पसर गई है समय में जहाँ आँसुओं से लिखती है पारदर्शी, उजले और भीगे शब्द रातों की छाती पर बिछोह की हिचकियों से सिहरे हुए रखती हैं सहमते हिज्जे अकेलेपन के और सारी रात जागकर सिसकियाँ सूरीनामी तट की तेज समुद्री हवाओं को सौंपती है संतापी तूफान और आँखें सितारों के आले में रखती हैं प्यार के शब्द समय की कंघी से उतर आए अपने केश को भेजती है अपने पत्र में शब्दों के साथ अकेलेपन की सिलवटों को अरमानों के शब्दों में सहेज रखती है देश छोड़ने के बाद सूनी-थकी साँसों को सँभालती है प्रिय की दूरभाषी हतउत्कंठी आवाज़ से पीती है तरल अमृत सुख प्रिय का जिया हुआ दिवस सुबह बनकर समाता है उसकी आँखों में अपनी पहली चाय के समय भारत में ढल रही साँझ की याद म

।। अनन्य राग ।।

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विदेश में सूरीनाम के भारतवंशियों बीच ढो लाई हूँ भारत देश अपनी मन-देह में देश का मातृत्व प्रेम देह-माटी में है गंगा माटी स्मृतियों की अँजुली में है स्वदेशी बादल समाहित है मेघदूत मेघदूत में कभी कालिदास कभी नागार्जुन कवि सूर्य के ज्योति-कलश में है रघुवंश का तेज-पुंज सूरीनाम के भारतवंशियों की भक्ति में स्मरण आते हैं कुमार गन्धर्व                    जसराज                    भीमसेन जोशी कृष्ण की भक्ति में पहुँचता है चित्त वृन्दावन राम की भक्ति में चित्रकूट शिव-शंकर के उपासकों बीच ह्रदय पहुँचता है काशी तीरे और उज्जैन सूरीनाम में बसे हुए भारत में बसाती हूँ मैं स्मृतियों का भारत यहाँ के पुरखों में आत्मा लखती है अपने पुरखे ।

।। मन के भोजपत्र ।।

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स्वदेश से आई चिट्ठी ने कहा दुआओं के शब्द होते हैं चिट्ठियों में और सपनों की आँखें खुलती हैं चिट्ठी में शब्दों की खामोश छाया शब्द अपने कोमल स्पर्श से कागज पर छोड़ते हैं स्पर्श की मुलायम भाषा पिघलता है चिट्ठी में मन का ग्लेशियर शब्दों में घर करके उजाला पहरुआ बन खड़ा रहता है आँखों के सहमे अँधेरे के खिलाफ           घबराए हुए           समय के विरुद्ध होते हैं           चिट्ठी के पवित्र शब्द           मन के पीपल से उड़ आए           पके पत्ते हों जैसे           मन-डायरी के सादे पृष्ठों पर           तुम्हारे वक्ष धड़कनों के शब्द हैं जैसे           चिट्ठी के शब्द           मन के भोजपत्र मन में उगती और सिमटती ऋतुओं की अंतर्यात्रा से झरे हुए होते हैं चिट्ठी के शब्द शब्द-वक्ष में उगे हुए स्मृति-पुष्प हों जैसे मन के छत्ते से शहद की तरह निचुड़ आते हैं चिट्ठी के शब्द अपने देश की आत्मीय स्मृति में पगी हुई होती है स्वदेश से आई चिट्ठी ।

।। अर्थ-बोध ।।

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विदेश प्रवास में हम दोनों प्रवासी शब्द की तरह हैं हेमचन्द्र के शब्दानुशासन से परे पाणिनी के अष्टाध्यायी के व्याकरण से दूर शब्दकोष से परे आखिर मैं और तुम शब्द ही तो हैं शब्द में साँस लेती धड़कनें नवातुर अर्थ के लिए आकुल सघन-घन कोश में आँखें पलटती हैं मेघों को पृष्ठ-दर-पृष्ठ कभी फूलों के पत्तों को उलट-पलट सूँघती हैं सुगंध का रहस्य कभी सूरीनाम और कमोबेना नदियों से पूछती है अनथक प्रवाह का अनजाना रहस्य हम दोनों प्रवासी शब्द की तरह हैं अधीर और व्याकुल अंतःकरण के वासी नाम शब्द की तरह ओंठों की मुलायम जमीन पर खेलते हैं स्नेह-पोरों से पलते हुए बढ़ते हैं शब्द समय में समय का हिस्सा बन जाने के लिए अंश में अंशी की तरह रहते हैं शब्द जैसे विदेश में समाया रहता है स्वदेश जैसे मुझमें बसा रहता है तुम्हारा अर्थ-बोध ।

।। स्वदेशी स्वप्न ।।

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परदेश प्रवास के जीवन में शामिल है तुम्हारा जीना मेरे सपनों में तुम्हारे सपने सूरीनाम की धरती पर स्वदेश की आहटें मेरी धड़कनों की ध्वनि में करती हैं चुपचाप बातें वृक्षों के पास अपने फलों के सपने होते हैं फूलों के पास अपनी सुगंध के स्वप्न बीज अपने वृक्षों के लिए स्वप्न देखते हैं और वृक्ष अपने बीजों के लिए धूप में तपते हुए तपस्या करते हैं परिक्रमा करते हैं ऋतुचक्रों की नदी अपनी मछलियों के लिए स्वप्न देखती है और समुद्र अपनी नदियों के लिए मैं पारामारिबो के तट पर अटलांटिक महासागर की हिलोरों में तकती हूँ हिन्द महासागर के स्वप्न प्रवास की पीड़ा में देखती हूँ स्वदेश के स्वप्न विदेश की भाषा में सुनती हूँ अपनी भाषा के अर्थ ध्वनि में होते हैं नई भाषा के अर्थ-गुंजलक ।

।। जन्मदिन ।।

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जन्मदिन दिलाते हैं याद उम्र के घटने की कम करते हैं सपनों की उम्र छीन लेते हैं कुछ इच्छाएँ भर देते हैं न भरने वाला उम्र का खालीपन चलते हुए पाँव पूरी करते हैं उम्र की परिक्रमा प्रतिवर्ष । आँखें मढ़ना चाहती हैं अपनों के चेहरे पर आत्मीयता का हर्ष जो वर्ष भर में घिस जाता है स्वार्थों की रगड़ से जन्मदिन के अवसर पर मुस्कराहट पी लेना चाहती है खुशी शुभकामना देने वाले हर हँसते हुए चेहरे से जबकि ओंठ जानते हैं मुस्की का खोखलापन । जन्मदिन के उत्सव पर हाथ मिलाते समय हथेलियाँ हथेलियों में सिमट समाकर भूल जाना चाहती हैं संपूर्ण क्लेश द्धेष ईर्ष्या और भेदी मन-मुटाव जबकि जानती हैं मिलने भर के पल का है यह क्षण भर का मिलन एक विस्मृति में बदलने के लिए ।

।। एकान्ती का सहचर ।।

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तुम्हारी आँखें छूट गई हैं मेरी आँखों में तुम्हारे शब्द मेरे कान में । तुम्हारी साँसों के घर में घर बनाया है मेरी साँसों ने तुम्हारे अधर में धरे हैं मेरी चाहतों के संकल्प तुम्हारे स्पर्श में छूट गई है एक खिली हुई ऋतु तुम्हारे प्रणय वृक्ष का प्रणय-बीज मन-पड़ाव का आधार एकान्त का सहचर । स्मृति निवासी तुम्हारी छूती हुई परछाईं हर क्षण छूती और पकड़ती है पूर्णिमा की चाँदनी की तरह पराग के सुगन्ध की तरह । तुम्हारा आनंदास्वाद छूट गया है मेरे आह्लाद-कक्ष में महुए की तरह शेष तुम मुझमें सेमल की तरह कोमलाकर मन-भीतर रचते हो एक रेशमी कोना अपने नाम और अपनेपन के लिए स्वात्म सिद्धि के लिए जो तुम्हारी हथेलियों में बसी रेखाओं की तरह है अमिट और जीवनदायी । तुम्हारी हथेली की रेखाओं की पगडंडी में चलती हैं मेरी हथेली की रेखाएँ एक हो जाती हैं वे मन की तरह अपने खुशी के मौकों में तुम्हारी हथेली को खोजती है मेरी हथेली सुख की ताली के लिए तुम्हारी हथेली की स्मृति में तरल होती है मेरी हथे

।। आस्था के अक्षत ।।

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सूर्य को सौंप देती हूँ तुम्हारा ताप नदी को चढ़ा देती हूँ तुम्हारी शीतलता हवाओं को सौंप देती हूँ तुम्हारा वसंत फूलों को दे आती हूँ तुम्हारे ओंठों की रंगत वृक्षों को तुम्हारे स्पर्श की ऊँचाई धरती को तुम्हारा सोंधापन प्रकृति को समर्पित कर आती हूँ तुम्हारी साँसों की छुअन वाटिका में लगा आती हूँ तुम्हारे विश्वास का अक्षय वट तुम्हारी छवि से बनाती हूँ प्रेम की कोमल छवि चुपचाप कहने आती है जो तुम्हारी भोली अनजी आकांक्षाएँ तुम्हारे मीठे अनजाने स्वप्न तुम्हारे दिवस का एकांत एकालाप तुम्हारी रातों का एकाकी करुण विलाप मंदिर की मूर्ति में दे आती हूँ तुम्हारी आस्था ईश्वर में ईश्वरत्व की शक्ति भर पवित्रता तुमसे मिलने के बाद ।

।। सौंदर्य-शास्त्र ।।

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तुम्हारा-अपना प्रेम अलौकिक प्रणय-नदी का लौकिक तट तटबंध है - मैं और तुम पूर्णिमा का सौंदर्यबोधी चाँद मन-भीतर पिघलकर रुपहला समुद्र बनकर समा जाता है आँखों की पृथ्वी में अपनी जगह बनाते हुए महासागर की तरह चमक चाँदनी के रुपहले डोरों से मन बुनता है सारी रात अपने लिए सुहाग-चूनर तुम्हारे लिए सुहाग-साफा तुम्हारी अनुपस्थिति में घर का दर्पण रहता है उदास मेरी तरह सूनेपन से संपूर्ण घबराए हुए ख्वाब देखते हैं अपना अक्स ठंडी साँस की निलाई छूट जाती है चमकते आईने में और कभी चटख जाता है मेरी ही भीतर की घबराई चीख से विदेश प्रवास में समय छोड़ जाता है अपने कुछ पारदर्शी प्रश्नचिन्ह कि अपनी परछाईं में देखती हूँ बगलगीर खड़ा तुम्हें मेरी आँखों के करघे पर तुम्हारी आँखें बुनती हैं अलौकिक स्मृति-पट्ट स्मृति-अधर लिखते हैं अदृश्य ह्रदय-भाष्य । स्वप्न खोजते हैं स्मृतियाँ स्मृतियाँ देखती हैं नवस्वप्न अपने अकेलेपन में तुम्हारी अनुपस्थिति में स्मृतियाँ रचाती हैं तुम्हारी उपस्थिति का प

।। अनोखी भाषा ।।

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तुम्हारे-अपने संबंधों के लिए रची है मैंने एक अनूठी भाषा जिसके शब्द रातों की तन्हाई और नींदों के सपनों से बने हैं खुली आँखों में सपनों का घर है आँखों के पाँव पहचानते हैं ह्रदय का रास्ता काँच हुई देह पर गिरते हैं ओंठों के बूँद-शब्द पिघलता है रंगों का सौंदर्य अकेलेपन की आग में स्मृतियों की गीली रेत पर चलती हैं अधीर आकांक्षाएँ अभिलाषाएँ वेनेजुएला के राष्ट्रीय पुष्प-वृक्ष 'ग्रीन हार्ट' का पर्याय नहीं है जो सिर्फ एक दिन के लिए हवाओं में खिलता है अपनी साँसों और पीताभ सौंदर्य-बोध के लिए ।

।। वसंत की जड़ें ।।

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सूर्य की चमक में तुम्हारा ताप है हवाओं में साँस पाँखुरी में स्पर्श सुगंध में पहचान जब जीना होता है तुम्हें खड़ी हो जाती हूँ प्रकृति-बीच और आँखें महसूस करती हैं तुम्हें अपने भीतर अपनी परछाईं में देखती हूँ तुम्हें ही मेरी देह बन चुकी है तुम प्यार की परछाईं बनकर धरती पर बिछी हुई हूँ तुम्हारी देह छूती है जिसे छाया बनकर कि परछाईं वाली धरती में फूट पड़ती हैं वसंत की जड़ें ।

।। एकाकी राग ।।

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एक गहरी तड़प की छटपटाहट में निचुड़ती रहती है देह रह रह कर टभकती है पीड़ा बूँद बूँद चूता है दर्द मन-घट में स्मृतियों का अमृत प्रतीक्षा की सूनी नदी और मन का तट झाँकती हूँ जब भी दिखती है अपने मन की जल-सतह पर चाहत की व्याकुलता में थका हुआ तुम्हारा चेहरा कोसती हूँ साँसों की गोद में पड़े हुए समय को समाई हुई है जिसमें दो नक्षत्रों की दूरी अपाट प्रवास में तृषा को जीना जाना आँखों ने सीखा आँसू पीना चुपचाप रेगिस्तान में दबे हुए बुत की तरह तपती रहती हूँ हर पल अकेलेपन की आग में मन जीता है और जानता है एक पथराई हुई खामोशी जिसमें जीती रही हूँ अब तक तुम्हारी प्रतीक्षा में बैठी रही हूँ समय के बारूदी ढेर पर और सुलगती रही भीतर ही भीतर सबसे खुद को बचाकर काँटे की तरह धँसे हुए समय में तुम्हारी स्मृतियों की धड़कनें मेरे भीतर करती हैं स्तुति पाठ आत्मीय मंत्रोच्चार की तरह ।

।। हथेली में ।।

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विदेश में चाँद से चुरा लेती हूँ अपनी धरती का चाँद और सितारों से स्वप्न-पथ के लिए रोशनी सूर्यरश्मियाँ सीती हैं अँधेरा चन्द्रकिरणें काढ़ती हैं कशीदा अपनत्व की पुकार में आँसू देते हैं मौन आवाज पुनर्वापसी स्वदेश की जीवन का पुनर्जन्म साँसों की रुलाई में हवाएँ बुनती हैं स्वप्न-स्वेटर एकाकीपन के शीत को ढँकने के लिए प्रतीक्षा में निरखती हूँ आकाश और तलाशती हूँ बादल कि वे रूमाल बनकर सोख लें आँसू और फिर बरसे स्वदेश की गोद में स्मृति बनकर धड़कनें कह पातीं अनुभूतियों का दुःख धड़कनें बातें करतीं मेरी और तुम्हारी तरह धड़कनें समझतीं बेचैन, बेचैनी की धीमी आहटें जो अध्वनित स्पर्श होती हैं खुशनुमा धूप की तरह जो गहरे कोहरे के बाद छिटकती हैं  नम मुलायम घास पर जाड़े की गुनगुनी धूप के शब्द बनकर शब्दकोश से परे धड़कनें अपनी ध्वनि में रच पाती 'अगर' सही-सही शब्द तो मुखर हो जाता 'मौन' जो है तुम्हारे लिए मेरे भीतर तुम्हारी हथेली ने लिखी मेरी हथेली में स्पर्श की पहली

।। शब्द के ह्रदय में ।।

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आँखों के भीतर नदी है पलकें मूँदकर नहाती हैं आँखें दुनिया से थककर ओठों के अंदर वृंदावन है चुप हो कर जीते हैं ओंठ स्मृति सुगंध तृषित होने पर ह्रदय-धरा में प्रणय-नियाग्रा मेरे लिए झरता हुआ लेकिन तुम्हारे ही लिए निर्झर को 'नियाग्रा' कहते हो और मैं तुम्हें कल को विहान पुकारते हो और मैं तुम्हें वचन को प्राण कहते हो और मैं तुम्हें सुख को मेरे नाम से जानते हो और मैं तुम्हें सुख को तुम मेरी हथेली मानते हो और मैं तुम्हें ।