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मई, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।। पूर्णिमा ।।

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पूर्ण चाँद अपने रुपहले घट के अमृत को बनाकर रखता है तरल पारदर्शी नारियल फल भीतर चुपके से गहरी रात गए अनाथ शिशुओं का दूध बनने के लिए निर्धन का धन सूरीनामी वन जिन पर ईंधन भर या हक़ छावनी छत पर जैसे गाय या बकरी का पगडंडियों की घास पर होता है हक़ पत्तों की छतों पर पुरनिया टीन की छाजन पर चंदीली वर्क लगाता है चाँद ताजी बर्फी की तरह मीठी लगती है गरीब की झोपड़ी विश्राम के आनंद से भरपूर । रुपहले रंग की तरह पुत जाता है चाँद पूर्ण पृथ्वी पर बगैर किसी भेद के जंगल … नदी … पहाड़ … को एक करता हुआ घरों को अपने रुपहले अँकवार में भरता हुआ मेटता है गोरे-काले रंग के भेद को पूर्ण चाँद प्रियाओं के कंठ में सौंदर्य का लोकगीत बनकर तरंगित हो उठता है जबकि रात गए सन्नाटे में सींझुर भी अपनी ड्यूटी से थककर सो चुका होता है नए कोलाहल के स्वप्न देखने के लिए ।

।। प्रेम ।।

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।। विरोधी हवाओं के बीच ।।

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प्रतीक्षा में बोए हैं स्वप्न-बीज सेमल की रेशमी चमक को मुट्ठी में समेटा है विरोधी हवाओं के बीच प्रतीक्षा में आत्मा के आँसुओं ने धोई है मन-चौखट और अभिलाषाओं की बनाई है अल्पना धड़कनों ने प्रतीक्षा की लय में गाए हैं बिलकुल नए गीत प्रतीक्षा में सो जाता है पूरा अतीत भीतर-ही-भीतर जाग उठा है भविष्य मन ऋतु के साथ जुगलबंदी करते हुए प्रतीक्षा में कोमल उजास की होती हैं मौन आहटें कुछ करीब होने के पाँवों की परछाईं और हथेली की गुहारती पुकार आँखों के आले में समाने लगता है प्यार का उजाला कि पूरा एक सूर्य-लोक दमक उठता है भीतर-ही-भीतर प्रतीक्षा के कसकते सन्नाटे में कौंधती है आगमन अनुगूँज शून्यता में तैर आती है पिघली हुई तरल आत्मीयता कि घुलने लगता है स्मृतियों का संगीत स्पर्श की परछाईं आँखों में, साँसों में पसीज आई हथेली में प्रतीक्षा में अबाबील चिड़िया की तरह लटके हुए 'विरुद्ध घोंसले' के समय में रखती हूँ स्वप्न-चूजे कुहनी भर जगह पर शहतीर की तरह टिकी

।। आँखों के घर में ।।

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रात भर आँसू लीपते रहते हैं आँखों का घर अँगूठा लगाता है ढाँढ़स का तिलक हथेलियाँ आँकती हैं धैर्य के छापे जैसे आदिवासी घर-दीवारों पर होते हैं छापें और चित्रकथा उत्सव और मौन के संकेत-चिन्ह सन्नाटे में सिसकियाँ गाती रहती हैं हिचकियों की टेक पर व्यथा की लोकधुनें । कार्तिक के चाँद से आँखें कहती रहती हैं मन के उलाहने चाँद सुनता है ओठों के उपालम्भ चाँद के मन की आँखों में आँखें डाल आँखें सौंपती रहती हैं अकेलेपन के आँसू और दुःख की ऐंठन अनजाने, अनचाहे मिलता है जो कुछ विध्वंस की तपन                        टूटन की टुकड़ियाँ                        सूखने की यंत्रणा                        सीलन और दरारें                        मीठी कड़ुआहट                        और जोशीला ज़हर तुम्हारे 'होने भर के' सुख का वर्क लगाकर छुपा लेती हूँ सब कुछ फड़फड़ाती रुपहली चमक के आगोश में आँखों के कुंड में भरे खून के आँसुओं के गीले डरावनेपन को घोल देती हूँ तुम्हारे नाम में खुद को खाली

।। आत्मीयता ।।

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बेआबरू मौसमों की तरह पड़े हैं सपने आँखों के कोने में एकाकी परदेश प्रवास में सूरज की सेंक में सुलगते हैं स्वप्न जिंदगी फिर भी रचती रहती है नए-नए ख्वाब विदेशी मित्रों की तरह अकेले, विदेश में याद आती हैं सहमी हुई स्मृतियाँ चाँदनी से भी झरता रहता है अँधेरा पूर्णिमा की पूरी रात अकेले में उदास शब्द के गहरे अर्थ की तरह इच्छाएँ तलाशती रहीं नए पत्ते जहाँ साँस ले सकें इच्छाएँ और उनसे जन्म ले सकें अन्य नवीनतर इच्छाएँ इच्छाओं के साँचे में समा जाती हैं जब भी इच्छाएँ जिंदगी हो जाती है जिंदगी के करीब ।

।। शब्दों की आवाज़ ।।

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शब्दों से पुकारती हूँ तुम्हें तुम्हारे शब्द सुनते हैं मेरी गुहार तुम्हारी हथेलियों से शब्द बनकर उतरी हुई हार्दिक संवेदनाएँ अवतरित होती हैं आहत वक्ष-भीतर अकेलेपन के विरुद्ध बचपन में साध-साधकर सुलेख लिखी हुई कापियों के कागज़ से कभी नाव, कभी हवाई जहाज बनाने वाली ऊँगलियाँ लिखती हैं चिट्ठियाँ हवाई-यात्रा करते हुए शब्द विश्व के कई देशों की धरती और ध्वजा को छूते हुए लिखते हैं संबंधों का इतिहास संयोग-सुख और वियोग-सन्ताप तुम्हारे संकल्पित शब्द अंतरिक्ष के भीतर गोताखोरी करते हुए डूब जाते हैं मेरे भीतर अकेलेपन के विरुद्ध सलोने संयोग की प्रतीक्षा में ।

।। शब्द-बैकुंठ ।।

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बादल चुप होकर बरसते हैं मन-भीतर स्मृति की तरह सुगंध मौन होकर चूमती है प्राण-अन्तस साँसों की तरह उमंग तितली-सा स्पर्श करती है मन को स्वप्न-स्मृति की तरह विदेश-प्रवास की कड़ी धूप में साथ रहती है प्रणय-परछाईं सितारे अपने वक्ष में छुपाए रखते हैं प्रणय रहस्य फिर भी आत्मा जानती है शब्दों के बैकुंठ में है प्रेम का अमृत ।

।। स्मृति कथा ।।

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सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच जागता-जीता है देशपुत्र सूरीनाम सविता गूँथती है फूलों में कांति के गजरे घन-घटाएँ धोती हैं धरती देह सूर्य रश्मि से दमकता है सूरीनाम चाँद के रुपहले स्वप्न देखता है सूरीनाम वर्ष भर वसंत-श्री का सौंदर्य भोगता हुआ दिन में कई बार वर्षा का हर्ष पीता सूरीनाम सुगंधित निर्मल प्रकृति का मनोहर स्तबक है । सूरीनाम कमोबेना नदी के सिरहाने जीवन की वंशी डाले भारतीय स्मृतियों में खोया स्वप्नों में बिछुड़े स्वजन खोजता धरती को रोज बनाता है अगवानी के काबिल और विहान से अगोरता है राह एक अप्रवासी भारतीय प्रवासी भारतीय की प्रतीक्षा में राहों का अन्वेषी बन खड़ा है अटलांटिक महासागर के तट पर सूरीनाम की वसुधा के लिए भारतीय प्रवासियों की नवतुरिया पीढ़ियों की आँखें बरस पड़ती हैं आत्मीय आँखों से बतियाने के लिए नदी की तरह समा जाना चाहती हैं एक-दूसरे में भारत का स्पर्श कर आई किरणें अपनी स्वर्ण-स्याही से लिखती हैं रोज एक भारतीय चिट्ठी सूरीनाम देश के नाम सूरदास के पद

।। अंतरंग ।।

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नदी की लहर हवाओं में साँस की कोशिश मछलियों की तरह नदी तट की देह-माटी में है गर्भिणी-प्रसवा स्त्री की देह में जैसे मातृत्व लहरियों के चिन्ह नदी पहनती है जल-वसन हवाएँ खेलती हैं नदी के जल-वस्त्र से सागर प्रिय की तरह समेटता है नदी का जल-वसन निर्वसना नदी की देह-माटी में मिली होती है सागर की प्रणय-माटी जिस पर उकेरी हुई प्रकृति की प्राकृत भाषा लिखती हैं हवाएँ प्रकृति में ऋतुएँ के नाम से और साँसों में प्रणय के नाम से हवाएँ बीज में रोपती हैं प्रेम धड़कनों में गुनती हैं स्वदेश-स्मृति सूरीनामी वन नहाता है बरखा के आलिंगन में पर्वत भोगते हैं वर्षा के भुजपाश का सुख घन की सघन परछाईं पृथ्वी को बचाती है सूर्य-ताप से तुम्हारी ही तरह ।

।। रेड बैली ।।

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प्यार का लाल पक्षी फूल-सा कोमल और मुलायम सेमल-सा रेशमी चित्त-चितेरा प्रिय का ह्रदय ही नीड़ चक्कर लगाता है नित्य खोलो खिड़कियाँ अपने चित्त के सिरहाने की पक्षी की रक्षा में समुद्र-पार उड़ान से भारी है पंख निश्चय ही अलौकिक है उसका प्रेम समर्पित करता है अपना सर्वस्व प्रणय की प्रतीक्षा में विरल प्रणय-पाखी का स्पर्श करते तुम तुम्हारे ऊष्म और धड़कते वक्ष की अनमोल कोशिश एक महाकोशिश प्राणों में जैसे महाप्राण रेड वैली पाखी ।

।। फ्रान्क द बूर - 2014 चैम्पियनशिप ।।

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नीदरलैंड ही नहीं विश्व के फुटबॉल चहेतों का प्रिय कोच फ्रान्क द बूर देश के फुटबॉल प्रेमी कोच से तय करते हैं अपना क्लब 27 अप्रैल 2014 को आयक्स ख़िलाड़ी पुनः हुए चैम्पियन अपने राष्ट्र के 27 अप्रैल 2014 को वंश परम्परा में सौ वर्षों बाद महाराजा हुए वलिम एलेक्ज़ेंडर ने मनाया अपना सैंतालिसवाँ जन्मदिन आज ही के दिन राष्ट्र हर्ष और आनंद के उत्साह में था मीडिया और अख़बार में चेहरे थे महाराजा वलिम एलेक्ज़ेंडर                      महारानी मैक्सिमा                      कोच फ्रान्क द बूर देश का अविस्मरणीय ऐतिहासिक दिवस राष्ट्र को मिला एक श्रेष्ठ राजा जिसने वर्ष भर में आर्थिक संकट काल में एक बिलियन की कमाई करायी देश को अपने उद्यम और दूरदर्शिता से विश्व से बनाये सघन संबंध और वर्ष भर दौरे किए अपने देश में तथा फुटबॉल प्रेमियों को मिला एक विशिष्ट कोच विनम्र कोच साधक फुटबॉल कोच फ्रान्क द बूर सुपर द बूर अपने जुड़वाँ भाई रोनाल्ड के साथ नवसिखवे खिलाड़ियों को वर्ष भर में करते हैं दक्ष और बना देते हैं चैम्पियन लगाता