।। वह ।।
साँसें
धोती हैं देह
रात-दिन
देह
पृथ्वी का बीज
पंच तत्वों का प्राण बीज
अपनी फड़फड़ाहट
सौंप देती है पक्षियों को
अपना ताप
लौटा देती है सूरज को
अपना आवेग
दे देती है हवाओं को
अपनी प्यास
भेज देती है नदी के होंठों को
अपना अकेलापन
घोल देती है घने सन्नाटे में
अपनी चुप्पी
गाड़ देती है एकान्त कोने में
फिर भी
हाँ … फिर भी
उसके पास
यह सब बचा रह जाता है
उसकी पहचान बनकर
मन्दिर में
ईश्वर को हाजिर मानकर
वह लौटा देती है
अपनी आत्मा
गहरी शान्ति के लिए ।
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