।। ऋचाओं के भीतर से ।।
प्रेम देह के भीतर नहीं होता है विश्वास की देह में पवित्र आत्मीयता की आत्मा में धड़कनों में ध्वनित आस्था में जैसे पाषाण खंड में होता है ईश्वर के होने का विश्वास जैसे चित्र की रंग रेखाओं में होती है किसी के होने की आस्था जैसे तस्वीर के रंगों में होती है किसी के होने की तासीर अपनेपन का स्पन्दन प्रेम अदृश्य और अमूर्त है अलौकिक पर लौकिक जैसे डाला छठ में दिया हुआ निर्जला उपवासी अर्ध्य पहुँचता है सूर्य के चरणों तक जैसे करवा चौथ में अर्पित श्रृंगारिक व्रत सुहागिन की पति-सुख-कामना पहुँचती है चन्द्रमा के वक्ष तक जैसे अक्षत के दाने पहुँचते हैं देवताओं के मंगल-अभिषेक तक जैसे हवन और पुष्पाहुति पहुँचती है वेद-ऋचाओं तक जैसे कुरान की आयतों की इबारत पहुँचती है खुदा तक जैसे प्रेयर पहुँचती है गॉड तक जैसे शब्द से पहुँचता है अर्थ वैसे ही देह से पहुँचता है प्रेम देह तक ध्वनि और स्पर्श से परे अध्वनित ही ध्वनित भीतर से भीतर तक उर के अन्तस् तक पर्तों के पृष्ठों बीच कुछ लिखता कुछ