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।। कुँवारा आनंद-सुख ।।

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तुम्हारे शब्द छूते हैं पूरा दिवस आकार लेने लगता है समय सार्थक होने के लिए आत्मा प्रणय के वसन्त में लेती है पुनर्जन्म प्रस्फुटित होता है सौंदर्य भीतर से बाहर तक सर्वांग में । स्नेह लहरों के स्पर्श भर से अनुभव होती है पूर्ण नदी वर्षों तलक कि आत्मा जी लेती है अक्षय कुँवारा आनंद सुख ।

।। आत्मा के समुद्र की व्याकुल आहटें ।।

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मन मछली को देह नदी से निकालकर डुबा देना चाहती है वह आत्मा के समुद्र में क्योंकि रेत नदी है   देह सूखी और प्यासी मन के उजाले को देह के अन्ध-अँधेरे कोटर से निकाल सूर्य-रश्मि बन लौट जाना चाहती है वह सूर्य-उर में अंतहीन अँधेरी सुरंग है देह पथहीन मन की धड़कनों की ध्वनियों में रचना चाहती है तुम्हारे नाम के पर्यायवाची शब्द उन शब्दों में रमाकर अपनी धड़कनों को भूल जाना चाहती है 'स्व' को और महसूस करना चाहती है ऋचा की पवित्र अनुगूँज की तरह तुम्हें मिथ्या-शब्दों के छल से दग्ध आत्मा को निकाल लेना चाहती है तुम्हारे नाम से तुम्हारी साँसों से अपनी संतप्त धड़कनों के बाहर मन की साँसों से ऋतुओं के प्राण को खिला देना चाहती है देह-पृथ्वी के अनन्य कोनों में तुम्हारी कोमलता की हथेली में लिख देना चाहती है वह अपने अधरों से कुछ प्रणय-सूक्त तुम्हारे नाम की पवन-धारा में नहा आई साँसों को लगा देना चाहती है प्रणय-देह-शंख में जीवन-जय-घोष के लिए मन-देह को प्रणय-शब्द-देह म

।। चिट्ठी की आँखों में ।।

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चिट्ठियों में आते हैं शब्द चुपचाप   तुम्हारी तरह दबे पाँव … बेआहट तुम्हारी आँखों की तरह मौन निहारते और निरखते हैं चेहरे की चुप्पी हँसते मुखौटे आँसू मेरी आँखें चिट्ठी के शब्दों से पीती हैं तुम्हारे आँसू और तुम्हारे शब्दों की आँखें सोखती हैं मेरी विकलता तुम्हारे शब्दों में होती है तुम्हारी साँसों की आकुल-बेचैनी और अकेलेपन की अकाट्य-कथा संतप्त चित्त की रागिनियाँ बजती हैं अहर्निश चिट्ठी की पत्र-पृष्ठ हथेली में होती है प्राणों की प्रणय-मुट्ठी तुम्हारा विकल्प तुम्हारे ही लिखे शब्द हैं अभिन्न और चुप ।

।। सच के भीतर से ।।

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तुम मेरे पास सुख की तरह हो जैसे - जड़ों के पास जमीन तुम्हारा स्पर्श मुझे छूता है जैसे - सूरज छूता है पृथ्वी तुम पढ़ते हो मेरा सर्वस्व जैसे - आँखें पढ़ती हैं सब कुछ शब्द और साँसों से परे जाकर तुम मेरे पास स्वप्न के सच की तरह हो जैसे - आँखों के पास दृष्टि तुम्हारे सामने होने भर से आँखों में जिए गए स्वप्न घुल जाते हैं प्रणय-देह में देह में उजागर होती हैं स्वप्न की रेखाएँ और रंगत पके अनाज-सी उठती है सोंधी-गंध स्वप्न-भूख तृप्त होती है सिर्फ तुम्हारे पास होने भर से जैसे - हिम शिखर के निकट मेघ-देह हो अपने में सिमटी शिखरों से लिपटी ग्लेशियर पर पिघलती हुई बरसने को आतुर ।

।। अर्क ।।

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संवेदनाओं की पोरों से तुम्हें छूकर सहेज लेती हूँ अन्तर्तम में संबंधों की अनुभूतियों का अमृत-अर्क पिघलता और घुलता हुआ जो ओले की तरह गल जाता है पोर-पोर में अमृत-अर्क ऊर्जा से ऊष्मा में बदलता रहता है धीरे-धीरे साँसों से साँसों में जैसे आँव में पकती है कच्ची मिट्टी तुम्हारे होंठों के शब्द तुम्हारी बेकल आँखों की तरह उतर जाते हैं मन-सरोवर में झील में झिलमिलाते क्षितिज तट की तरह उतरते हैं मुझमें मुझसे मिलने के लिए एकांत के आत्मीय क्षणों में स्पर्श ने अपनी छुअन से रचे हैं तुम्हारे अपरूप-प्रणय रूप ।

।। पूर्वाहट के बगैर ।।

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प्रेम अपनी पूर्वाहट के बगैर गुपचुप … चुपचाप पहुँचता है आपके भीतर भीतर से - कुछ और मुलायम करता हुआ कुछ और कमसिन कुछ और नाजुक कुछ और पतला कुछ और तरल कुछ और सरल कुछ और सूक्ष्म कुछ और अधिक सूक्ष्मता से भीतर-ही-भीतर थामता और समेटता है सब कुछ प्रेम अपनी पूर्वाहट के बगैर आगमन के संकेत साँसों की हवाओं में घोले बगैर आँखों की कोरों से दबे पाँव रिसकर पहुँचता है नयनों की अनयन पारदर्शी झील में ठहरता और प्रतीक्षारत रहता है जीने के लिए अतृप्त सुख प्रेम चुपचाप आपको चुराते हुए आपके भीतर रहता है जैसे आकाश की शून्यता में ब्रह्माण्ड ।

।। वसन्त के रंग ।।

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प्रेम देह गुहा के भीतर चमत्कार की तरह घटित होता है चकाचौंध करता हुआ विस्मित करता है प्रेम देह-गुहा के भीतर उजाले की तरह घुसता है प्रगाढ़ता के तन्तुओं को रोशनी के आगोश में समेटता है देह-भित्ति में चित्रकार की तरह रचता है उर-उजली रेखाओं से युगल की एकल अनुभूति देह-भीत पर स्पर्श की कोमल कमनीय तूलिका से देहावरण पर नहीं देहाभ्यन्तर में उभरते हैं प्रणय-चित्र अमिट आत्मीय अभिन्न कि पोर-पोर को छू लेती है वह आत्मा कि जिसके होने भर से देह दो भित्तियाँ एकात्म हो देह-उर-भीतर बनाती हैं - खुद-ब-खुद 'घर' प्रणय का विश्वास का समर्पण का जैसे शिशु अपना प्रथम घर बनाता है माँ की कोख में और अपनी धड़कनों से लिखता है प्रथम इबारत स्त्री के वक्ष पर प्रणय का परिणाम फल जो स्त्री के देह-वृक्ष पर फलता है और देह-वक्ष पर वसन्त की तरह खिलता है ।

।। अनुपस्थिति में ।।

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तुम्हारी अनुपस्थिति में होता है सिर्फ तुम्हारा प्रेम देह नहीं देह के इतर आँखों की स्मृति में शेष रहता है तुम्हें देखकर छूने का तरल तोष देह के स्मृति-कोश में संचित होता है स्पर्श का आत्मीय विश्वास आत्मा में शेष रहता है सघन तृप्ति का अमिटबोध तुम्हारी अनुपस्थिति में नहीं होती अपेक्षाओं की परिधि कुछ खो जाने का भय समय के रिसकर फिसल जाने की चिंता सिर्फ होती है तुम्हारी न हारने वाली             हेरती दृष्टि नहीं होती हैं तुम्हारी आसक्ति की सिलवटें न ही तुम्हारा देह-मोह न ही तुम्हारी बेचैनी और न ही क्षण-भर में सब कुछ अपनी अंजलि में समेट लेने की उद्दाम जिजीविषा तुम्हारी अनुपस्थिति में होता है सिर्फ तुम्हारा प्रेम देह नहीं देह से इतर ।

।। महुआ-सा प्रेम ।।

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प्रणय तुमसे कुछ नहीं सिर्फ … अभय की नाव दोना-भर विश्वास महुआ-सा प्रेम चाहिए … महकता और महकाता बाँझ होती संवेदना के संबंधों को जीने और जिलाने के लिए मन पर जम आई माटी की मटियाली पर्त को धोने-बहाने के लिए चूसे गए रक्त से सूखी पड़ी पथराई देह के लिए देह की भूख के लिए नहीं मन की तृषा के लिए आत्मा की पवित्र तृप्ति के लिए आदम दृष्टि के विद्युतीय दाह से स्याह धब्बों को मेटने के लिए धुँआई साँसों के घुटन-भरे छल्लों से मुक्ति के लिए मन पर पड़ती धूसर-मार की कहानी को कहने के लिए तनाव के उत्ताप-संसार के दबाव संताप के रेशे-रेशे को खोलकर तुम्हारी झोली में डाल सकें प्रणय तुमसे कुछ नहीं सिर्फ … अभय की नाव दोना-भर विश्वास महुआ-सा प्रेम … महकता और महकाता प्रणय-वृक्ष से झरे पात की पर्णकुटी हो तुम तन की ही नहीं मौन मन की भी रजत रज का सैकत तट ब्रह्मानंद का ब्रह्मनद ब्रह्मनद का प्रणय-तट तरंग हथेलियों में लहरों की अंजुलियों में श्वेत-प्रणय-शंख पवित्र प्रे

।। प्रेम की हथेली ।।

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घड़ी में जागता है समय स्मृतियों का प्रिय की साँसों में             उसकी साँसें अपनी आँखों में जोड़ लिए हैं उसने प्रिय के नयन जी-जीवन जुड़ाने के लिए प्रिय की सुगंध को          सहेज लाई है          सामानों में … कि वे जीवित स्वप्न बन गए और प्रिय के पहचान की सुगंध प्रणय-अस्मिता के लिए कि अब उसके सामान और वह प्रिय की पहचान दे रहे हैं प्रेम की हथेली की तरह ।