संदेश

2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तीन छोटी कविताएँ

चित्र
।। सूत्र ।। प्रेम में हम जनमते हैं      जीवन और जीवन में हम जानते हैं अथाह अछोर अनंत-प्रेम ।। देह की पृथ्वी में ।। वह रचाती है      ह्रदय में प्रेम का अथाह महासागर अनाम और अलौकिक पृथ्वी के महासागरों से इतर मन की देह की पृथ्वी का महासागर ।। अनश्वर ।। प्रिय का हर शब्द प्रेम की वंशावली है देह अनश्वर है जीवित रहती है    आत्मा की देह में    देह प्रेम की तरह ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से) 

।। ध्वनि-गुंजन ।।

चित्र
अनन्य अनुराग में उन्मत्त अविचल थिरकती उपासना के कानन में करती है     उपवास साँसों से जपते हुए आँसुओं का चढ़ाती है     अर्ध्य ताप में तपकर होती है सजल     उजल ऐसे में निर्मल शब्द देह में पहुँच कर घुल जाते हैं      रक्त में बन जाते हैं      देह की नेह पहचान विदेह हुई देह में होती है     मात्र प्रणय देह बहुत चुपचाप व्याकुल चित्त में गूँथती है    शब्दों की परछाईं साँसों में सिहरन धड़कनों में ध्वनि-स्पंदन सब पर्याय हैं     प्रेम में                       सिद्ध साधना के                       मूल मंत्र ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। कौंध-गूँज ।।

चित्र
अंतस में चट्टान हो चुकी समय की पर्तें चटकती रहती हैं      जब-तब वजूद के कुछ शब्द अधरों पर लेते हैं      अपना आकार वर्षों बाद देह ने ध्वनित होते सुना    स्वयं को    स्वयं में आँखें पहचान सकीं अपने आँसुओं का नमक और पानी अधरों में हुई     बाँसुरी-सी सुगंधित सिहरन और पकी फसल की तरह हम दोनों ने लिया        एक-दूसरे का नाम तैयार की निज की हथेलियाँ हथेलियों को भरने के लिए चित्त की गंध उतरने लगी थी चेतना में मन के बीजण लौट आए    फिर से भीतर से बाहर तक तुम्हारी आकांक्षाओं की अनथकी आहटें तुम्हारे धैर्य के कुछ अनिवार्य शब्द प्रार्थना से संयुक्त हो गूँजते हैं       आत्मा में हृदय की मंजुषा में सुरक्षित स्पर्श की हथेलियों का स्पंदन अनुभूतियों के नए रेखा-चित्र आकुल धड़कनों की धुन में गाते हैं       नई लय जो बजते ही रहते हैं निरंतर ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। प्रिय की हथेली ।।

चित्र
समय की धार उतारती हैं उँगलियों से नाखून और याद आती है तुम्हारी हथेली की पृथ्वी जो मेरे कटे हुए नाखूनों को भी अपनी मुट्ठी की मंजूषा में सहेज रखना चाहती थी तुम्हारी हथेली की अनुपस्थिति में पृथ्वी छोटी लगती है जहाँ मेरे टूटे नाखून को रखने की जगह नहीं बची न ओंठों के शब्द और न आँखों का प्यार जिन हथेलियों में सकेल लिया करती थी भरा-पूरा दिन एकांत रातें बची हैं      उनमें करुण-बेचैनी सपनों की सिहरनें समुद्री मन की सरहदों का शोर तुम्हारी आँखों में सोकर आँखें देखती थीं भविष्य के उन्मादक स्वप्न तुम्हारे वक्ष में सिमटकर अपने लिए सुनी है समय की धड़कनें जो हैं सपनों की मृत्यु के विरुद्ध ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। प्रेम का पर्याय ।।

चित्र
नदी जानती है चाँद का सुख जब सारी रात चाँद खेलता है उसके वक्ष से कोख तक कि नदी की मछलियों को बनाता है रुपहला चाँद और नदी के अभिसार का अभिलेख हैं रुपहली मछलियाँ कि वे नदी की देह में खोजती हैं     चाँद को जो घुल गया है प्रेम का पर्याय बनकर जैसे तुम मुझमें नदी के बहाव में है नदी के प्यार की धुन ध्वनि से शब्द बनाने के लिए चाँदनी बनती है चाँद की दूतिका चाँद सीखता है नदी से प्रेम की भाषा चाँदनी नदी में घुलकर रुपहली स्याही होकर तरंगों में लिखती है प्यार का भाष्य तुम्हारी साँसों से खींचती हूँ प्रेम की प्राणशक्ति अपने शब्दों की चेतना के लिए कि वे जब खुले और खोलें अपना मौन तो रचें  प्रेम की अमिट प्राकृतिक भाषा ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। सार्थक होने के लिए ।।

चित्र
तुम्हारे शब्द छूते हैं       पूरा दिवस आकार लेने लगता है     समय सार्थक होने के लिए कुँवारी आत्मा प्रणय के वसंत में लेती है    जन्म पुनर्जन्म प्रस्फुटित होता है भीतर से बाहर तक प्रणय लहरें छू कर चली जाती हैं और महसूस होती है      पूरी नदी वर्षों तलक बिल्कुल वैसे ही      जैसे आँखें नदी देखकर डुबकियाँ लगा लेती हैं      नदी में और जी लेती हैं प्रणय का कुँवारा आनंद-सुख ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। पक्ष में ।।

चित्र
मैं तुम्हारी तरह हूँ तुममें तुम्हारे वक्ष के कैनवास को भरती हूँ    अपने रंगों से तुम्हारी लिखावट में है मेरी तासीर की नमी स्मृतियों में सुनायी देती है    तुम्हारी आवाज़ धड़कनों की स्वर लहरी तुम्हारी आवाज़ तुम्हारी लिखावट तुम्हारे शब्द जो किसी भी धर्म ग्रंथ से नहीं हैं फिर भी आशीषते हैं    हर पल प्रणय को प्रकृति के पक्ष में पृथ्वी के लिए ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। तप रही आहुति ।।

चित्र
तुम्हारी हृदय अँजलि में मेरी हथेलियाँ जैसे यज्ञ-वेदिका में तप रही आहुति पुण्य के लिए तुम्हारी आँखों में प्रेम की निर्मल गंगा आकाशी निलाई के साथ समाता है चेहरा मुझे चूमता हुआ तुम्हारी आँखें मुझे पढ़ती हैं प्रेम की पहली पुस्तक की तरह शब्दों में बैठी हैं       अर्थ की गहरी जड़ें ऋग्वेद और पुराणों के अर्थसूत्र खोजती हूँ तुम्हारे शब्दों में तुम्हारी मुट्ठी में हर बार मेरी आँखें रख देती हैं    कुछ आँसू अनकही चिंताओं की गीली तासीर तुम्हारे वियोग में जनमते हैं    अक्षय प्रणय शब्द-बीज जो मेरे ख़ालीपन को खलिहान में बदलते हैं भगवान की प्रतिमा पर चढ़ा मेरा शब्द-पुष्प चरम सौभाग्य बनकर आता है     मेरी हथेली में तुम्हारी हृदय अँजलि के लिए ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। साक्षात्कार ।।

चित्र
शब्दों के पास होती है, आत्म चेतना चेतना शब्दों की आत्मा है स्पर्श करती है     सचेतनता के साथ सजग आत्मा को खोल देती है   देह-बंध तोड़ देती है   मोह-व्यामोह शब्द मुक्त करा लाते हैं    आत्मा को देह से कि आत्मा सुन सके आत्मा को आत्मा देख सके आत्मा को आत्मा स्पर्श कर सके आत्मा को शब्दों से और लीन हो सके    आत्मा में मुक्ति के लिए ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। लय-विलय ।।

चित्र
प्रेम में साँसें समझ पाती हैं साँसों की भाषा जो हथेलियों से आँखों तक एक हैं मन-देह के बीच अपनी लिपि में अपने लय में अपने शब्दों में अपने अर्थ में लय होती है विलय एकांत में राग की सुगंध और सुगंध का अंगराग लिप जाता है मन वसुधा में प्रणय चाहता है अपनी देह-गेह में प्रिय का हस्ताक्षर संवेदना की जड़ें पसरती जाती हैं    भीतर ही भीतर कि देह-माटी पृथ्वी के समानांतर अपना वसंत जीने लगती है प्रणयाग्नि से तपी देह हो जाती है स्वर्ण-कलश अमृत से पूर्ण प्रणय देह के ईश्वरीय चौखट पर समर्पित करता है     अपना सर्वस्व और विलीन होता है पंच तत्वों में ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

तीन कविताएँ

चित्र
।। भिगोने के लिए ।। स्मृतियों में आवाज़ नहीं होती है सिर्फ़ गूँज होती है मन-समुद्र के आवेग की संबंधों में रोशनी नहीं होती है सिर्फ़ उत्ताप होता है प्रणयाग्नि के प्रज्वलन का प्रेम में बरखा नहीं होती है सिर्फ़ बरसात होती है सर्वस्व भिगोने के लिए ।। विमुक्त होने के लिए ।। घुल गई है तुम्हारी ध्वनि शब्दों को आत्मसात कर लिया है चेतना ने        आत्मीय होकर साँसों ... में साँस लेती हैं    तुम्हारी ही आत्मा की ध्वनियाँ तरंगित अनन्य अनुराग छेड़ता है मिलकर     विलक्षण तान लय में जिसके विलय हो जाती है       देह ।। प्राणवान ।। शब्द छूते हैं    देह और देह जीती है     शब्द प्रेम में प्राणवान होती है ऐसे ही देह और ऐसे ही शब्द ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। शब्द-स्पर्श ।।

चित्र
शायद हवाओं की साँस ठहर जाती है क्षण भर के लिए जब सितारे लिखते हैं    नई तारीख़ अनुभूति-पट पर प्रथम-प्रणय का राग सूरज हर सुबह नई तारीख़ में झरता है अपनी धूप से जैसे  प्रेम पूरता है   हृदय के अक्षय-स्पंदन-कोष को जैसे   पर्वत जनमते हैं   अपनी स्नेह सरिताएँ शब्दों की शहदीली सुनहरी दीप्तिमान छुअन को जानते हैं     ओंठ जैसे    कवि के अधर पहचानते हैं      अपनी कविता के शब्द वैसे ही     कविता के ओंठ अनुभव करते हैं      कवि के अधर शब्दों की तरह शब्दों में प्रेम की तरह ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

तीन छोटी कविताएँ

चित्र
।। सिद्धी ।। प्रेम आत्मा का राग है प्रिय साधता है उसे देह के वाद्ययंत्र में प्रणय-सिद्धियों के निमित्त ।। दुर्गम देह ।। दैहिक महाद्धीपी दूरियों के बावजूद हार्दिक लहरें स्पर्श कर आती हैं     चित्त-तट-बंध और तब मुक्त हो जाती है देह देह-सीमा के दुर्गम बंधनों से ।। रूपांतरण ।। शब्दों में लीन ध्वनियाँ अर्थ में विलीन हो जाती हैं अर्द्धांगिनी की तरह जैसे मैं तुममें ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। ऋतुओं की हवाएँ ।।

चित्र
सुनती हूँ सुनकर छूती हूँ      तुम्हें स्वप्न स्वर्गिक वाद्ययंत्र बनकर गूँजते हैं     बहुत भीतर रचते हैं      संगीत का अंतरिक्ष तुम्हारे ओंठों से छूटे हुए शब्दों को       बचाकर सुना है तुम्हें तुमसे ही      तुम्हें छुपाकर गुना है तुम्हें एकांतिक मौन-विलाप सुदूर होकर भी अपनी धड़कनों के भीतर महसूस किया है      उसे जैसे नदी जीती है     अपने भीतर पूर्णिमा का चाँद दीपित सूर्य झिलमिलाते सितारे और चुपचाप पीती है ऋतुओं की हवाएँ अपनी तृप्ति के लिए ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। पोर-पोर में ।।

चित्र
चित्त चुपचाप ही स्मृति-पृष्ठों पर लिखता है     अभिलेख मौन ही       स्पंदन                 धड़कन                 बँधाव और           रचाव की तिथियाँ चुपचाप भोगता है     प्रेम प्रेम की आँखों का प्रतिबिम्ब अपनी आँखों में मुस्कुराहट का सुख अधरों में स्पर्श का अमृत अपनी हथेलियों में और प्रिय का प्रियतम अहसास पोर-पोर में कि जैसे आत्म-सुख से आह्लादित हो देहात्मा भी ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। अमिट ।।

चित्र
प्रेम की कोई उम्र नहीं सभी कहते हैं कोई नहीं आँक सकता है प्रेम की औसत आयु ... प्रेम सिर्फ़ उम्र-भीतर रचाने आता है रहस्यपूर्ण अनगिनत अनुभूतियाँ अपने अनमिट चिन्ह जो ईश्वरीय हथेली की विशिष्ट स्पर्श-छाया है हृदय में अंकित अमिट और अक्षय अधर और स्पर्श मौन और वाणी देह-भीतर गढ़ते हैं    नवल प्रणय गात जिसे हम 'ईश्वर' पुकारते हैं ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

चार छोटी कविताएँ

चित्र
।। बहुत चुपचाप ।। प्रेमानुभूति का सुख जीवन-सुख नवस्वप्न का साक्षात-सदेह जन्म अपने ही भीतर प्रिय के विमुख होने का विषाद जैसे    मृत्यु से साक्षात्कार अपने ही भीतर विलखती है      अपनी आत्मा पूरी देह जीती है      करुण-क्रंदन बहुत चुपचाप ।। प्रिया ।। अधरों की विह्वल विकलता में अपनी ही उँगलियों से मसलती रहती है ओंठों की दारुण-तड़प फिर भी ओंठ सिसकते रहते हैं साँस की तरह अपने प्रिय के बिछोह में ।। प्रेमधुन ।। तुम्हारी     ध्वनि में सुनाई देती है अपनी आत्मा की प्रतिध्वनि तुम्हारे शब्दों की बरसात में भीगती है       आत्मा आत्मा जनित प्रेम में होती है प्रेम की पवित्रता और चिरंतरता ... ... बजती है     प्रेम धुन रामधुन सरीखी लीन हो जाने के लिए ।। ताप ।। धूप में सूर्य हममें प्रेम में प्रिय तितलियाँ भरती हैं    रंग आँखों में और आँखें आँजती हैं प्रेम ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

तीन कविताएँ

चित्र
।। घुल जाती है ।। प्रणय-दृष्टि ही नेह-देह है जहाँ नहाती हैं उमंगें चित्त की अंतः सलिला में घुल जाती है देह नयनों के सरोवर में डुबकियाँ लगाकर मन-देह हो जाती है     कभी ग्लेशियर कभी तप्त लावा कभी कैलाश शिखर और अंततः प्रणय का अक्षय शिवलिंग आराधनारत प्रेम में प्रिय की अक्षत सिद्धियों के लिए ।। रोज़ मिलते हैं ।। रोज़ मिलते हैं एक दूसरे से आवाज़ और ध्वनि में होते हैं    आलिङ्गित-आत्मलीन शब्दों की हथेलियों में होती हैं    हम दोनों की हथेलियाँ संवाद करते हैं     गलबहियाँ बावजूद इसके शब्दों से अधिक हम सुनते हैं    एक-दूसरे की साँसें और समझते हैं अर्थ शब्दों की धड़कनों का ।। अंतस में ।। सूर्य से सोख लिए हैं रोशनी के रजकण अधूरे चाँद के निकट रख दी हैं तुम्हारी स्मृतियाँ स्वाति बूँद से पी है तुम्हारी निर्मल नमी वसंत-बीज को उगाया है    अंतस में कहीं से मन झरोखे को थामे हुए तुम रहते हो       मेरी अंतर्पर्तों में स्वप्न-पुरुष होकर मेरी अंतरंग यात्राओं के आत्मीय स

।। नवातुर गर्भिणी ।।

चित्र
वह ख़ुश है अपनी देह के जादु से भरकर इठलाती है   रह रह कर हँसी में रचाती है अनदेखी ख़ुशी का सुख कि कुछ माह बाद निज हथेलियों में खिलाएगी अपने प्रणय की नवजात हथेलियाँ अपनी देह से जन्मी आँखों में लखेगी मन के कोमल स्वप्न हथेलियों को भरेगी अपने शिशु की मुट्ठियों से निज ओंठों से चूमेगी उसकी अधर-सी देह अपने वक्ष से लगाएगी नव-आत्म शिशु की पुलकित देह वह आह्लादित है कि उसकी स्त्री देह प्रेम में ईश्वर हो गई है ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। हथेली ।।

चित्र
  अकेलापन    पतझर की तरह उड़ता फड़फड़ाता है प्रिय की तस्वीर से उतरता है स्मृतियों का स्पर्श देह मुलायम होने लगती है चाहत की तरह हथेलियों से हथेलियों में उतरती है आत्मीयता की छाया प्रेम की भाषा प्रेम है सारे भाष्य से परे प्रणय एकात्म अनुभूतियों की अविस्मरणीय दैहिक पहचान है देहाकाश में इंद्रधनुषी इच्छाओं के बीच तुमसे कहने की सारी बातें वियोग में घुल कर बन जाती हैं    अक्ष और पोंछती हैं  अकेलेपन के चिन्ह (भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

पुष्पिता की आलोचना पुस्तक

चित्र
'आधुनिक हिंदी काव्यालोचना के सौ वर्ष' पुष्पिता अवस्थी की महत्त्वपूर्ण आलोचना पुस्तक है, जिसमें जैसा कि शीर्षक से ही आभास मिलता है कि - हिंदी काव्यालोचना के सौ वर्षों की गहन पड़ताल की गई है । पुष्पिता इस पुस्तक में आधुनिक हिंदी कविता और काव्यालोचना का नया सौंदर्यशास्त्र सृजन करने के क्रम में समीक्षा की भाषा के अलावा कई बुनियादी सवालों से भी दो-चार हुई हैं : यथा, कविता अपनी रचना में ही कैसे अपना नया काव्यशास्त्र रचती-रचाती है ? कविता और काव्यालोचना का सौंदर्य कैसे बनता है ? जीवनानुभवों और मनस्तत्वों की भाषा में कैसी बुनावट है ? क्या कारण है कि तुलसी-जायसी के व्याख्याता आचार्य शुक्ल कबीर से सहानुभूति/सह-अनुभूति नहीं महसूस करते ? आदि-इत्यादि । उल्लेखनीय है कि काव्यालोचना के सौंदर्यशास्त्र और भाषा के वर्तमान परिदृश्य को उर्वर बनाने में एक साथ कम से कम तीन पीढ़ियाँ सक्रिय दिखाई देती हैं, जिनमें विभिन्न तरह की प्रेरणाएँ और प्रक्रियाएँ देखी जा सकती हैं । काव्य-आलोचना का अद्यतन परिदृश्य विभिन्न दृष्टियों के ताने-बाने से निर्मित है, जिसे पुष्पिता ने अपनी इस आलोचना पुस्तक म

।। जैसे मैं तुममें ।।

चित्र
सूर्य की परछाईं में होता है     सूर्य लेकिन ... प्रकाश के प्रतिबिम्ब में होता है     प्रकाश लेकिन ... सूर्य अपने ताप से बढ़ाता है      अपनी ही प्यास नहाते हुए नदी में पीता है नदी को ... समेट लेती है      नदी अपने प्राण-भीतर सूर्य को जिसमें जीती है प्रकाश की ईश्वरीय प्रणय-देह पृथ्वी में समा जाती है    नदी धरती का दुःख कम करने के लिए जैसे मैं तुममें ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। नक्षत्र के शब्द ।।

चित्र
तुम्हारी हस्तलिपि में महसूस किया है      आँखों ने हृदय का ताप तुम्हारी लिखावट में हथेलियों ने अनुभव किया है     उँगलियों का सिहरता स्पर्श तुम्हारे कंधों पर मेरी हथेली है बग़ैर तुम्हें छुए बिना मेरे कहे विश्वास किया है     आँखों ने तुम्हारे लिखे को बिना कहे विश्वास किया है      आँखों ने तुम्हारे लिखे में ढूँढ़ी हैं       तुम्हारी उँगलियाँ महसूस किया है उनका सिहरता कम्पन जैसा     किसी अनुबंध पर हस्ताक्षर करते समय कुछ समय के लिए ठहरती हैं उँगलियाँ अपनी धड़कनों की धधकन सुनने के लिए प्रिय को लिखे शब्दों में उतरता है      अंतस के नक्षत्र का उजाला उन शब्दों को नक्षत्र में तब्दील करने के लिए ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। मौन प्रणय ।।

चित्र
मौन प्रणय शब्द लिखता है एकात्म मन उसके अर्थ मुँदी पलकों के एकांत में होते हैं     स्मरणीय स्वप्न प्रेम अपने में पिरोता है    स्मृतियाँ स्मृतियों में प्रणय प्रणय में शब्द शब्दों में अर्थ अर्थ में जीवन जीवन में प्रेम प्रेम में स्वप्न प्रणय रचे शब्दों में सिर्फ़ प्रेम होता है जैसे    सूर्य में सिर्फ़ रोशनी और ताप ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। सुनकर छूती हूँ ... ।।

चित्र
मैं सुनती हूँ    तुम्हें ... सुनकर छूती हूँ    तुम्हें तुम्हारे स्वप्न आवाज़ बनकर गूँजते हैं    मेरे भीतर तुम्हारे ओंठों के शब्दों से चुराकर सुना है     तुम्हें तुमसे ही तुम्हें छुपाकर गुना है    तुम्हें तुम्हारा एकांतिक मौन विलाप दूर होकर भी अपनी धड़कनों के भीतर अनुभव किया है     उसे जैसे    अपने भीतर जीती है पूर्णिमा का चाँद    नदी अपने भीतर सँजोती है प्रतिदिन     सूर्य झिलमिलाते सितारे और चुपचाप पीती है     ऋतुओं की हवाएँ प्रणय परकाया प्रवेश साधन देहांतरण में रूपांतरण की अंतरंग साधना प्रणयानुभूति में द्विजत्व की एकल अनुभूति राग की आग भिजोती है और अपनी आर्द्रता में दग्ध करती है    देहात्मा मन को पर्त दर पर्त खोलता है प्रेम रचता है    आकाश नवोन्मेषी संवेदना के लिए प्रणय-विश्वास हृदय-हथेली का मधु-पुष्प सुकोमल प्राणवान प्रेम में होती है    सह-उड़ान की शक्ति रचती है जो प्रणय शब्दों में पृथ्वी का मधुरतम स्पर्श सारी क्रूरताओं के विरुद्ध ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्र

।। राग में शब्द ।।

चित्र
प्रेम आँखों में खुलता और खिलता है दृष्टि बनकर रहता है     आँख में ... साँस की लय में रचे हुए शब्द घुल जाते हैं     अपनी लय में जैसे    राग में शब्द शब्द में राग प्रेम रचता है   प्रेम सारे विरोधों के बावजूद सार्वभौम शब्द   गूँज            प्यार अनुगूँज भूल जाता है जिसमें व्यक्ति    स्व को शेष रहता है सिर्फ़    प्रेम जैसे      समुद्र में समुद्र धरती में धरती सूरज में सूरज चाँद में चाँद और प्यास में पानी प्रेम की आँखों में सो जाती हूँ अपने स्वप्न की तरह दुनिया के झूठ और हिंसा से थककर नयनाकाश में घिरते हैं सघन-घन प्रेम का पावन समुद्र बरसता है    मुझ पर तुम्हारे हृदय का बीज लेकर .... मन गर्भ में मूर्त रूप से रचना चाहती हूँ   तुम्हारा हृदय जैसे    शब्दों में रची जाती है   सृष्टि अमिट सृजन के लिए आँखें एकनिष्ठ साधती हैं    प्रणय-गर्भ में संवेदनाएँ प्रणय का ऋषि कानन है प्रेम अनुभूतियाँ रचती हैं   प्रणय का नव-उत्सर्ग गंधर्व विवाह का आत्मिक संसर्ग दुष्यंत और शकुंतला की तरह सच्चाई की ध

।। अपने ही कंधों पर ।।

चित्र
बहुत बेचैन रहते हैं    सपने दिमाग़ के क़ैदख़ाने में जकड़ गए हैं     सपने । युद्ध की ख़बरों से सैनिकों का ख़ून फैल गया है     मन-मानस की वासंती भूमि पर । बम विस्फोटों के रक्त रंजित दृश्यों ने सपने के कैनवास में रंगे हैं    ख़ूनी दृश्य अनाथों की चीख़-पुकारों से    भरे हैं कान संगीत की कोई धुन अब नहीं पकड़ती है  मन के सुर छल और फ़रेब की घटनाओं ने लील लिया है      आत्म विश्वास एक विस्फोट से बदल जाता है     शहर का नक़्शा विश्वासघात से फट जाता है संबंधों का चेहरा कि जैसे अपने भीतर से उठ जाती है     अपनी अर्थी अपने ही कंधों पर । (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। संतापाग्नि ।।

चित्र
आँखें देखती हैं     भीतरिया आँखों से भी जहाँ मन की पृथ्वी के पाषाण होने का दर्द है जो बदल रहा है काले पत्थर में भावी भट्ठियों की आग के लिए जबकि दुनिया की क्रूर भूख को भरने के लिए मानवीय मांस पक रहा है तृषा-तृप्ति के लिए आवश्यकता है अमृत-नदी भागीरथी की तबकि नदियों में घुल रहा है     विध्वंस का ज़हर मानव आविष्कृत मानवीय अमृत-नदी को पी डाला है दुनिया ने अपनी दंशकारी प्यास बुझाने के लिए प्यास लगने पर आँखें पीती हैं रेतीली चमक का जल जो नदी के सूख जाने के बाद शेष है दुनिया भुला बैठी है अपनी आँखों के अंतस की पृथ्वी का चेहरा उसकी आँखें और मुस्कुराहट पहचानना कोई हमेशा भीतर से छीनता रहता है इंसान का अपनापन जो हमेशा उसका अपना घोंसला है साँसों के परिंदों की स्वप्निल उड़ानों के लिए सुबह और साँझ के युद्ध विरोधी बादलों की रेशमी चमक खींच लाने के लिए बाहर का आतंक हर पल मन के भीतर लड़ता है एक विश्व-युद्ध की जीत का दाहक आत्मसंघर्ष सरकारों के बीच चलत

।। विलक्षण संयोग ।।

चित्र
तुम्हारी आदतों के आवर्त के घेरे में रहती हूँ    अक्सर तुम हो जाने के लिए अपनी छाया में स्पर्श करती हूँ तुम्हारी परछाईं तब, न मैं तुम्हें छूती हूँ न स्वयं को पर अनुभव करती हूँ  अनछुई    छुअन जिसमें सूर्य का ताप भी है और मेघों की तृप्ति भी एक साथ एक बार विलक्षण संयोग (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। द्विज का चाँद ।।

चित्र
द्विज के चाँद के अँधियारे शेष वृत्त में धर देती हूँ     तुम्हारा चेहरा इस तरह पूर्ण कर लेती हूँ      चाँद को अपने लिए कि वह सबका होते हुए भी सिर्फ़ मेरा होता है अँधियारे अकेलेपन के विरुद्ध कभी वृत्त के आधे चंद्रमा के शेष हिस्से पर लिख देती हूँ तुम्हारा नाम और इस तरह पूर्ण कर लेती हूँ      चाँद को जैसे तुम्हारे चेहरे पर धर के अपने अधर पूरा करती हूँ अपने प्रेम का अर्धवृत्त जो ठिठका रहता है     मेरे भीतर अभिषिक्त आलिंगन की प्रतीक्षा में अंतरिक्ष में भी चाँद लिए रहता है     तुम्हें मेरे खातिर वह जानता है     मुझे तुमसे अधिक उसके पास दर्ज है मेरे किशोर मन का करियाया सन्नाटा और युवा होने का सूनापन चाँद लखता रहा है     मुझे और लिखता रहा है अपनी चाँदनी की स्याही से शाश्वत प्रेम की रूपहली इबारत जिसका पाठ मैं करती हूँ नित्य तुम्हारे लिए (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। कोटर में ।।

चित्र
शब्दों से अधिक ताक़त होती है   शब्दों की आवाज़ में आवाज़ से बनती है शब्दों की ताक़त तुम्हारे शब्दों से अधिक विश्वास है तुम्हारी आवाज़ में ध्वनित होती है    उसमें तुम्हारी आत्मा जितनी बार सुनती हूँ     तुम्हारी आवाज़ महसूस करती हूँ ख़ुद को तुम्हारी आवाज़ के कोटर में तुम्हारी आवाज़ में तुम्हारी आत्मा के शब्द हैं तुम्हारे चैतन्य के चेतस तत्व मेरे चित्त में विलीन हो जाने के लिए (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। सचेतन हूक ।।

चित्र
प्रेम देह की भूख से अधिक चित्त की सचेतन हूक है संवेदना के गर्भ से जन्म लेता है    प्रणय अनुभूतियों के स्पर्श से पलता है    प्रणय कि     मन देह तैरने लगती है अपने ही जाये प्रणय-सरोवर में खिलने लगते हैं    तृप्ति-कमल देह की ज्ञानेन्द्रियों में राग से पूर्ण हो उठती है प्राणों की जिजीविषा एक अलौकिक तृप्ति से भरकर लौकिक जीवन जीते हुए (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। तुम देखना ।।

चित्र
तुम देखना सूर्योदय में किरणों से तुम तक    पहुँचूँगी मैं अँधेरे की रस्सी की गाँठे खोलते हुए जिसमें अकेलेपन का कसैला दर्द है तपाऊँगी तुम्हारी देह     अपने प्रेम से जैसे    आँखों के निकट हूँ तुम्हारे तुम देखना सूर्यास्त की संपूर्णता में मैं उगूँगी     तुम्हारे भीतर तुम पढ़ना रात की स्याह स्लेट पर मेरी साँसों की हवाओं की भीनी इबारत तुम देखना तुमसे ही    तुम पर उतरूँगी विश्राम-सुख की तरह तुम बैठना मेरी अनुपस्थिति में भी नदी के तट पर वह किनारा भी मेरी तरह ही साथ होगा    तुम्हारे चुप    तुम्हीं को निहारता हुआ तुम देखना ... (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। बच्चों के सपनों के लिए ।।

चित्र
बच्चों के बड़े होते ही खिलौने छोटे हो जाते हैं माँ खिलौनों को सहेज सहेज रखती है बच्चों के विदेश जाने पर उनके छूटे हुए बचपन को फिर फिर छूने की अभिलाषा में बच्चे जान जाते हैं जैसे ही खिलौनों के खेल में छुपे जीवन के झूठ को घर-बाहर हो जाते हैं जीवन के सच की तलाश में माँ ढूँढ़ती रहती है खिलौनों में छिपी उनकी उँगलियों को अपने बच्चों के मुँह में लगाए गए खिलौनों को चूमती है विदेश पढ़ने गए बच्चों के बिछोह को भूलने के लिए खिलौनों में बची हुई बच्चों की स्मृतियों को छू छू कर वह कम करती है स्मृतियों की पीड़ा अपनी यादों में रखती है वह उनके खिलौने यह सोचकर कि आख़िर उसकी ही तरह खिलौने भी याद करते हैं उसके बच्चों को पुराने तिपहिया साइकिल को भी कभी खड़ा कर देती है सूने बग़ीचे में और याद करती है बच्चों के पाँव जो अब मिलिट्री की परेड में हैं या वायुयान की उड़ान में या अपने देश की सुरक्षा में या देशवासियों की सेवा में अब भी बचपन में गायी गई तुलसी की चौपाई को ई-मेल में लिख पठाती है रामचरितमानस ही नहीं जीवन का सार भी

।। प्रकाश पर्व ।।

चित्र
अँधेरे आकाश के स्तब्ध कैनवास पर बनाया जाता है प्रकाश पर्व का अविस्मरणीय उत्सव बच्चों की नन्हीं हथेलियों से तैयार पटाख़ों के जख़ीरे से सितारों सज्जित अंतरिक्षी छाती पर धरती से छूटते हैं ... बेधते हैं चकाचौंधी पटाख़े नभ में बनाते हैं   रोशनी की अल्पना रंगीन रोशनी छिटकती है पाँखुरी की तरह पर पटाख़े गूँजते हैं    चीख बन कर आकाशी आँखों में पटाख़ी रंगी रोशनी रचती है प्रकाश का आनंद-सुख पटाख़ों का उठता हुआ उजला शोर धरती पर खींच लाना चाहता है स्वर्ग का सुख ... धरती का हर्ष ... दीपावली पर्व पर लेकिन कब से और क्यों सभ्यता ने रच दी अभिव्यक्ति के लिए पटाख़ों की भाषा ? ख़ुशी की ध्वनि के लिए रंगीन बमों के शब्द जो युद्ध और विध्वंस की भाषा है शत्रुता की कहानी के लिए तोप और बंदूक़ों की शब्दावली मिसाइल का आक्रमण चोरी छुपे गोलाबारी विश्व और खाड़ी-युद्धी इराक़ी, ईरानी, लिबीयाई, सीरियाई और पाकिस्तानी धरती के विध्वंसक शोर का हदस जगाऊ ऐतिहासिक इतिहास जिसमें बंद क्या शब्द-यात्री मनीषियों की हज़ारों वर

।। अपने ही अंदर ।।

चित्र
आदमी के भीतर होती है    एक औरत और औरत के भीतर होता है    एक आदमी । आदमी अपनी ज़िंदगी में जीता है    कई औरतें और औरत ज़िंदगी भर जीती है    अपने भीतर का आदमी । औरत अपने पाँव में चलती है अपने भीतरी आदमी की चाल बहुत चुपचाप । आदमी अपने भीतर की औरत को जीता है    दूसरी औरतों में और औरत जीती है अपने भीतर के आदमी को अपने ही अंदर । (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। गर्भ की उतरन ।।

चित्र
स्त्री जीवन में उठाती है   इतने दुःख कि 'माँ' होकर भी नहीं महसूस कर पाती है माँ 'होने' और 'बनने' तक का सुख स्त्री होती है   सिर्फ कैनवास जिस पर धीरे-धीरे मनुष्य रच रहा है घिनौनी दुनिया जैसे   स्त्री भी हो कोई पृथ्वी का हिस्सा मनुष्य से इतर स्त्री झेलती है    जीवन में इतने अपमान कि भूल जाती है    आत्म-सम्मान स्त्री अपने को धोती रहती है    सदैव अपने ही आँसुओं से जैसे   वह हो कोई एक मैला-कुचैला कपड़ा किसी स्त्री-देह के गर्भ की उतरन (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। झील का अनहद-नाद ।।

चित्र
कोमो झील की तटवर्ती उपत्यकाओं में बसे गाँवों में तेरहवीं शताब्दी से बसी हैं   इतिहास की बस्तियाँ शताब्दी ढोतीं प्राचीन चर्च के स्थापत्य में बोलता है   धर्म का इतिहास इतिहास की इमारतें खोलती हैं   अतीत का रहस्य सत्ता और धर्म के युद्ध का इतिहास सोया है   आल्पस की कोमो और लोगानो घाटी में झूम रहा है   झील की लहरियों में अतीत का युद्धपूर्ण इतिहास वसंत और ग्रीष्म में झील के तट में गमक उठते हैं फूलों के रंगीले झुंड रंगीन प्रकृति झील के आईने में देखती है   अपना झिलमिलाता रंगीन सौंदर्य झील का नीलाभी सौंदर्य कि जैसे पिघल उठे हों नीलम और पन्ना के पहाड़ प्रकृति के रसभरे आदेश से झील के तटीले नगर-भीतर टँगी हैं पत्थर की ऐतिहासिक घंटियाँ पथरिया आल्पस के सुदृढ़ता का राग गाती हैं अनवरत   झील की तरंगे तट से लगकर ही सुना जा सकता है जिसका अनहद नाद और जल के सौंदर्य में बिना डूबे ही पिया जा सकता है   जल को जैसे आँखें जीती हैं झील-सुख बग़ैर झील में उतरे-उतराये झील के दोनों पाटों के गाँव घर अपनी जगमगाहट में मनात

पुष्पिता का पहला उपन्यास 'छिन्नमूल'

चित्र
विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित एक दर्जन से भी अधिक कविता-संग्रहों की रचयिता  पुष्पिता अवस्थी का अभी हाल ही में पहला उपन्यास  'छिन्नमूल'  प्रकाशित होकर सामने आया है । अंतिका प्रकाशन द्धारा प्रकाशित  'छिन्नमूल' सिर्फ पुष्पिता अवस्थी का ही पहला उपन्यास नहीं  है  - बल्कि औपनिवेशिक दौर में बतौर गुलाम सूरीनाम गए  भारतवंशी किसान-मजदूरों की संघर्षगाथा के साथ-साथ  वहाँ की वर्तमान जीवन-दशा, रहन-सहन, रीति-रिवाज और  सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों को उद्घाटित करने वाला  अपने ढंग का भी पहला उपन्यास है ।   अरसे तक सूरीनाम में रह चुकीं पुष्पिता अवस्थी ने  जितने सारे डिटेल्स के साथ सूरीनाम के संपूर्ण जन-जीवन को  दैनंदिन व्यवहारों और कार्य-कलापों के विवरण के साथ  इस उपन्यास में समेटा है, वह इसको महाकाव्यात्मक विस्तार और ऊँचाई देता है ।  248 पृष्ठों में समायी 'छिन्नमूल' की मूल कथा में  राजनीति, समाज, संस्कृति, इतिहास, धर्म और दर्शन  अंतरगुंफित हैं । एक तरह से कहा जाए तो इस उपन्यास का  नायक एक व्यक्ति न होकर पूरा सूरीनाम देश है ।  

कुछ छोटी कविताएँ

चित्र
।। नाखून ।।  आदमी  धीरे-धीरे कुतरता है  अपनी औरत को  जैसे  वह  उसके ही हाथ का  नाखून हो ।  ।। जोंक ।।  आदमी  चूमते हुए चाटता है     औरत को  जोंक की तरह  बाहर से भीतर तक  ।। ताबूत ।।  औरत की देह ही  औरत का ताबूत है  जिसे    वह  जान पाती है  उम्र ढलने के बाद  जीवन भर  एक ही यात्रा  दैहिक ताबूत से  भौतिक ताबूत तक  ।। ग्रेवयार्ड ।।  एक ग्रेवयार्ड से  गुज़रते हुए औरत  सोचती है  चलती हुई कारों के  उस पार  मृतकों का ग्रेवयार्ड है  और  इस पार  चलते और चलाते मनुष्यों का  ज़िंदा ग्रेवयार्ड  ।। आवाज़ ।।  संपूर्ण देह को  एक नया शब्द चाहिए  आत्मा भी शामिल हो जिसमें  और दिखाई दे  जैसे देह में  दिखाई देती हैं    आँखें  देह  आत्मा की ज़रूरत  नहीं समझती है  आत्मा का दुःख  सिर्फ़ आत्मा जानती है  और साँसों से कहती है  सिर्फ़ ब्रह्माण्ड के लिए (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। साल्विनी ।।

चित्र
माँ के सौंदर्य रस ने रची है देह सरस कि जैसे नैसर्गिक सौंदर्य ने धारण की है देह पुनः जीने के लिए हृदय ने खोली है अपनी आँखें तुम्हारी आँखों में अधरों ने किया है धारण संवेदनाओं का स्पंदन सौंदर्य ने लिया है चित्रलिखित अपरूप रूप कि सौंदर्य-बूँद ने रची है संपूर्ण देह कि चंचलता भी लरजती है तुममें तुमसे संभलकर प्रेम भी उझकता है   दबे पाँव चेहरे पर जीवन की तरंगे भी सहेजती हैं तुम्हें तुममें ही सौंदर्य को साधने के लिए कृत्रिम और आधुनिक हो चुके समय से बचाने के लिए कभी तुम्हारी 'माँ' की तरह कभी तुम्हारे 'पिता' की तरह (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। अर्ना ।।

चित्र
स्त्रीदेह धारी आत्मा का नाम है ... झिलमिलाती नीली आँखों में दिखती है   आत्मा की पारदर्शी स्थिर परछाईं पूर्ण चाँद सरीखी । शब्दों में गूँजती है   उसकी आत्मा की अनोखी आवाज़ अर्ना की स्त्री देह को अचंचल बनाए हुए हैं साधनारत आत्मा चेहरे पर उसके सधा हुआ है   आत्मा का सौंदर्य कि पवित्र हो जाती है दृष्टा की दृष्टि से अंतर्दृष्टि तक अर्ना ने रची है    अपनी आत्मा की भाषा वह सुनती है    आत्मा की आवाज़ अर्ना अपनी आत्मा की सहचर है जानती है    आत्मा की शक्ति को निज शक्ति में संचारित करना वह जानती है    चुप्पी को सुनना मौन को पढ़ना अर्ना की आँखों में रहती है    उसकी आत्मा नील जलजीवी परी सरीखी लख कर जिसे पवित्र कर लेती है   दुनिया अपने संस्कार संपूर्ण देह में तरंगित है    आत्मा स्पर्श में उसके अपना असर छोड़ती है    आत्मा नीदरलैंड   देश के महारानी दिवस को जन्मी   अर्ना ख़ुश है कि   इस दिन पूरे देश में रहता है अवकाश और अवकाश को जीने की उत्सवी आज़ादी आत्मा की अलौकिक आभा के कारण

डॉक्टर रेवती रमण के मूल्यांकन के अनुसार पुष्पिता अवस्थी का 'भोजपत्र' शकुंतला का कमल-पत्र है

चित्र
पुष्पिता अवस्थी ने पिछले दिनों ही प्रकाशित अपना एक कविता संग्रह 'भोजपत्र' वरिष्ठ कवि शमशेर बहादुर सिंह की स्मृति को समर्पित किया है । समर्पण-संदेश में उन्होंने शमशेर को  'प्रेम की अंतर्पर्तों के चितेरे'  के रूप में रेखांकित किया है । अंतिका प्रकाशन द्धारा प्रकाशित 'भोजपत्र' के समर्पण-संदेश में पुष्पिता ने अपनी एक कविता की कुछेक पंक्तियों को भी प्रस्तुत किया है, जो इस प्रकार हैं : 'प्रणय-देह के भोजपत्र हैं   मन   मानस    आत्मा     देह सृष्टि और ब्रह्मांड समाया है इनमें प्रेम और प्रेम में समाये हैं ये' 'भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह में 174 पृष्ठों में पुष्पिता की 127 कविताएँ  प्रकाशित हैं । दस पृष्ठों में डॉक्टर रेवती रमण ने इन कविताओं का  वस्तुपरक मूल्यांकन किया है । संकलन का आवरण चित्र  शशिकला देवी की रचना है । फ्लैप पर डॉक्टर रेवती रमण के 'अनुभूति का रजकण ही प्रणय है' शीर्षक मूल्यांकन आलेख का एक महत्त्वपूर्ण अंश है, जो इस प्रकार है : 'भोजपत्र' की अधिसंख्य कविताएँ प्रेम करने और पाने की प्

पुष्पिता अवस्थी की उपस्थिति के कारण अंतरराष्ट्रीय चीज़ महोत्सव का उद्घाटन कार्यक्रम हिंदी साहित्य संसार के लिए भी एक उल्लेखनीय अवसर बना

चित्र
प्रख्यात हिंदी कवयित्री पुष्पिता अवस्थी की मौजूदगी ने   उत्तरी हॉलैंड के प्राचीन शहर अलकमार के सिटी सेंटर में नहर के तट पर स्थित  चीज़ संग्रहालय में आयोजित हुए ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय चीज़ महोत्सव के  उद्घाटन कार्यक्रम को एक अलग तरह की गरिमा व भावनात्मक संलग्नता प्रदान की ।  यह उद्घाटन कार्यक्रम के आयोजकों की व्यापक संवेदनशील सोच का भी  सुबूत है कि उन्होंने एक व्यावसायिक पहचान वाले कार्यक्रम में  एक लेखक - वह भी एक कवि की मौजूदगी को सुनिश्चित किया ।   हॉलैंड के महत्त्वपूर्ण लेखकों, गायकों, पेंटरों, अभिनेताओं, खिलाड़ियों व  प्रशासनिक अधिकारियों की उपस्थिति में -  अलकमार के मेयर पित ओखेन ब्राउन तथा उनकी पत्नी ऐली के नेतृत्व में  हॉलैंड में भारत के राजदूत जेएस मुकुल द्धारा अपनी पत्नी मीता के साथ मिलकर  उद्घाटित किया गया यह कार्यक्रम  पुष्पिता अवस्थी की उपस्थिति के कारण  हिंदी साहित्य संसार के लिए भी एक उल्लेखनीय अवसर बन गया । उल्लेखनीय है कि 'चीज़' ने हॉलैंड को दुनिया में एक विशेष पहचान दी हुई है ।    पूरी दुनिया में हॉलैंड की चीज़ की अपनी अविस्मरण