।। लहरों का अलिखित प्रेम ।।
गंगा से दूर होने पर भी
मन के गंगा-तट पर खिलती है धूप
उदास समय के चेहरे पर खिला है गंगा का आना
गंगाजल में बसी स्मृतियों पर बहती है
मंद- मंद हवा
थिरकती है मन-जल में असंख्य छवियाँ
गंगा की लहरों की ध्वनियाँ बजती हैं प्रायः
खुले हैं प्रतीक्षा के बंध
चतुर्दिक समायी है गंग-शीतलता
और लहरों का अलिखित प्रेम
मन की गुफा में
ध्वनित हैं
अधीर उखड़ी साँसें
समा जाती हैं अंतरात्मा में
गंगा की पवित्रता में
दूर तक फैल जाती हैं भीतर-ही-भीतर लहरें
गंगा की गोद से उछलकर
रेत में आलिंगन में समायी लहरें
देह में
रम चुकी है गंगा में
अंतस अंतरिक्ष में
समायी है गंगा की पवित्रता ।
(हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'भोजपत्र' से)
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