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।। सोचती हूँ तुम्हें ।।

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ओंठ, पुकारते हैं   तुम्हें आँखें, अपने भीतर देखती हैं   तुम्हें साँसों में होती है अब तुम्हारी ही सुगंध आवाज़ में तुम्हारे ही शब्द वेदों में दिखती है   तुम्हारी ही दृष्टि गीता का संगीत तुम्हारे ही जीवन-कर्म में तुम उपस्थित होते हो   मेरे भीतर जब भी   मैं सोचती हूँ तुम्हें जीने के लिए जीने के क्षणों में

।। बीजक ।।

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मेरी तासीर में तुम्हारी ही हथेली है मेरी आवाज में तुम्हारी ही ध्वनि है मेरी हथेली में तुम्हारी ही गरमाहट है मेरे स्पन्दन में तुम्हारी ही आहटें हैं मेरी लय में तुम्हारा ही निनाद है मेरी देह के बीजक में तुम्हारा ही प्राण-बीज है

।। सूर्य की सुहागिन ।।

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प्रेम उपासना में रखती है  उपवास साँसें जपती हैं  नाम आँसुओं का चढ़ाती है  अर्ध्य हृदय-दीप प्रज्वलित करके कि निर्विध्न हो सके  उपासना अक्षय-साधना ऐसे में कुछ शब्द  देह में पहुँच कर रक्त में घुल जाते हैं और बन जाते हैं देह की पहचान विदेह हुई देह में होती है  मात्र प्रणय देह अनन्य अनुराग में उन्मत्त अविचल थिरकती उपासना में सूर्य किरणों की लगाता है  बिंदी माँग में भरता है  सिंदूर सुहाग को बनाता है अमर प्रिया को अजर-अमर सुहागिन अपने दीप्तिमान आशीष से । (हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'भोजपत्र' से)

।। मेयर पिट ब्रुइनोओगे अल्कमार ।।

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( एक ) जब कविता पढ़ने के लिए उमड़ता है उसका मन निकल पड़ता है रेतीले तट पर लहरों की हथेलियों से बनी पगडंडियों की ओर उसे लगता है कविता की धरती पर वह जैसे रख रहा है अपनी संवेदना के तलवे और महसूस कर रहा है कविता की कोमलता पृथ्वी के पृष्ठों पर जब कविता जीने के लिए उमड़ता है उसका मानस निकल पड़ता है हरियाले रास्तों की ओर हवाएँ सहलाती हैं उसके केश स्पर्श करती हैं उसका भाल सीज उठता है वह प्रणय के स्पर्श से ( दो ) उसकी आँखें समुद्र तट पर बदल जाती हैं अंजुलि में पान करता है प्रणय की तासीर समुद्री लहरियों से उसकी हथेलियों में समा जाती हैं हवाओं की हथेलियाँ और वह महसूस करता है प्रेम कभी प्रकृति का और कभी प्रिया की हथेलियों का अकेले में भी समेटता है हवाएँ उनकी आर्द्रता इस तरह नहीं रहता है अकेला और अन्तस् में समेटता है सृष्टि              पृथ्वी              जल              सूर्य-ताप              अंतरिक्ष-लोक तृप्त होती है उसकी आत्मा जैसे उसने आत्म सात