।। नदी की स्मृतियों में ।।

नदी के पास
अपना दर्पण है
जिसमें नदी देखती है  ख़ुद को
आकाश के साथ

नदी के पास
अपनी भाषा है
प्रवाह ही उसका उच्चार

नदी
बहती और बोलती है
छूती और पकड़ती है
उझकती और छुप जाती है
कभी शिलाओं बीच
कभी अंतःसलिला बीच

नदी के पास
यादें हैं
ऋतुओं के गंधमयी नृत्य की

नदी के पास
स्मृतियाँ हैं
सूर्य के तपे हुए स्वर्णिम ताप की
हवाओं के किस्से हैं
परी लोक की कथाओं के

नदी के पास
तड़पती चपलता है
जिसे मछलियाँ जानती हैं

नदी के पास
सितारों के आँसू हैं
रात का गीला दुःख है
बच्चों की हँसी की सुगंध है
नाव-सी आकांक्षाएँ हैं
बच्चों सा उत्साह है

अकेले में
नदी तट पर बैठती है वह
उसकी पारदर्शी स्मृतियों में
उतरने-उतराने के लिए

(अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित नए कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

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