।। अनुभव ।।
परिचित ही सही
वह फिर
मित्र हो या रिश्तेदार
स्त्री हो या पुरुष
घर में रह कर
जब
चले जाते हैं
चले जाते हैं
तब
पराया हो जाता है घर
उस समय भी
और
बाद तलक भी
जब तलक
नहीं हो जाती है सफ़ाई घर की
अपने हाथों
कोने अँतरे तक की
मन में
ऐसे ही
छोड़ जाते हैं विषाद
हर लेते हैं एकांत का अपनापन
सौंप जाते हैं अपनी इच्छाओं का अम्बार
और मन का कुचैलापन
और तब
महसूस होता है
वेश्याओं की देह-घर से
गुज़र जाते होंगे जब लोग
कैसे लेती होगी साँस वह
अपनी ही देह में
रहने के लिए
कैसे
ज़िंदा रहती होगी वह
उस देह में
जो रोज़ ही होती है परायी
दिन में कई बार
वासना के कीड़े बन चुके
आदमियों के कारण
(नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)
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