।। माँ का काजल ।।























गर्भ की आँख में
लगाया था   काजल
जिसे, तुम्हारे ही लोगों ने
पुँछवा दिया

सघन संबंधों को कभी
जिया था   गहरे अर्थ से भरकर
कि जैसे इससे पूर्व
         प्रेम शब्द
अर्थ के बिना था

स्पंदन में
फूटने लगी थी
दुग्ध कलिकाएँ
हृदय की कोख में
धड़कने लगी थी   ममता
साँसों में
महसूस होने लगी थी
बच्ची की दुधीली साँस
और वात्सल्य की सुगंध
नवजात हथेली की स्मृति भर से
मुलायम और गदोली होने लगती थी
'माँ' की हथेली

अपनी पुलक में
महसूस करने लगी थी
माँ की किलक
सपने में
शामिल होने लगा था
बच्ची का भविष्य
धीरे-धीरे देह टोहने लगी थी
स्त्री होने का जादू
पिता का प्रणय धड़कने लगा था
माँ-देह की गुप्त गोदावरी में

केशों में
महसूस करने लगी थी
बच्ची की भिंची मुट्ठियाँ
और उनका खिंचाव

कंधों पर
शैशव का सोंधापन
स्तनों में
उसकी भूख का भारीपन
अपनी छाती में
दुधारू गाय सरीखा भार
'माँ' की काल्पनिक स्मृतियों की लार से
भींजने लगी थी   उसकी अपनी ही देह

नानी की लोरी
तरंग बन जाग उठी थी
भूले हुए कंठ में

हथेलियाँ सीखने लगी थीं
थपकियों की कत्थक
अपने सपनों की छाती से
बच्ची को लगाकर सुलाने की जिजीविषा
जाग उठी थी   उसके भीतर

बच्ची के आगमन में
देखने लगी थी    अपना सूर्योदय
दैवी शक्ति का आविर्भाव
होने लगा था   उसके भीतर

माँ के भीतर
आकार लेने लगा था
उसकी देह-माटी का पराग
बच्ची के खेलने के लिए   सपनों से
लीपने लगी थी    मन की चौखट
कि अचानक
व्यवस्था की मार ने
उसके गर्भ से झाड़ दिया
देह का केशर

पाँखुरी
खुलने से पहले ही
उसकी हत्या करवा दी गई थी

'माँ' बनने की अभिलाषा में
जी रही स्त्री
एक झटके में हत्यारी हो गई
अपनी ही कन्या-भ्रूण की
जिसमें दोष नहीं था
न माँ का, न बेटी का
स्त्री-देह का
वसंत-गृह से मृत्यु-गृह में
बदल जाने का दुःख
गौतम बुद्ध के दुःख-दर्शन से परे है
नवांकुरित देह झर गिरना
कि जैसे   कोट का बटन
लगाने से पहले
छूट गया हो हाथ से

और गर्भ में लिखी
नई इबारत को
कर दिया जाए   अचानक
देह से बहिष्कृत
कि जैसे   वह हो कोई कलंक

देह ब्रह्मांड से
नक्षत्र टूटकर
गिर गया हो ब्रह्मांड से बाहर
कि जैसे   कलाई से
धड़कती घड़ी
उतार ली हो   समय ने

जबकि हर पल
गर्भपात से पहले ही
डरती रहती थी कि
कोमल और मुलायम
ईश्वर घर की तरह पवित्र
पाँखुरी से मुलायम
पराग से सुगंधित
देह के गर्भ-गृह से बाहर आने पर
ऐसी भीषण दुनिया में कैसे रहेगी
उसकी बेटी
जैसी दुनिया में
सूरज के होने पर भी
काँप कर रखती है वह अपने पाँव
हर दिन
घर से बाहर

ठीक से चलती है उसकी साँस
घर पहुँचने पर ही

रात में
दिन के हादसे से
कई बार
भर आती थीं    आँखें

सपनों के पाँव में मोजे का
पहला फंदा डालते ही
देह की सलाई से
व्यवस्था ने
ढुलका दिया
नव देह का सुकोमल फंदा
हा ...

[दक्षिण एशिया के इंडोनेशिया, थाईलैंड जैसे कई देशों और विश्व की अनेक आदिवासी तथा अमर इंडियन प्रजातियों में थाली बजाकर .... उत्सव मनाकर कन्या-जन्म का स्वागत करते हैं - और भारत जैसे मानवता प्रवर्तक देश में कन्या-भ्रूण हत्या हताश करती है ।]

(नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

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