।। तुम देखना ।।

तुम देखना
सूर्योदय में
किरणों से तुम तक    पहुँचूँगी मैं
अँधेरे की रस्सी की गाँठे खोलते हुए
जिसमें अकेलेपन का कसैला दर्द है
तपाऊँगी तुम्हारी देह     अपने प्रेम से
जैसे    आँखों के निकट हूँ तुम्हारे

तुम देखना
सूर्यास्त की संपूर्णता में
मैं उगूँगी     तुम्हारे भीतर

तुम पढ़ना
रात की स्याह स्लेट पर
मेरी साँसों की हवाओं की भीनी इबारत

तुम देखना
तुमसे ही    तुम पर उतरूँगी
विश्राम-सुख की तरह

तुम बैठना
मेरी अनुपस्थिति में भी
नदी के तट पर
वह किनारा भी
मेरी तरह ही
साथ होगा    तुम्हारे
चुप    तुम्हीं को निहारता हुआ

तुम देखना ...

(नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

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