।। सुनकर छूती हूँ ... ।।
मैं सुनती हूँ तुम्हें ... सुनकर छूती हूँ तुम्हें तुम्हारे स्वप्न आवाज़ बनकर गूँजते हैं मेरे भीतर तुम्हारे ओंठों के शब्दों से चुराकर सुना है तुम्हें तुमसे ही तुम्हें छुपाकर गुना है तुम्हें तुम्हारा एकांतिक मौन विलाप दूर होकर भी अपनी धड़कनों के भीतर अनुभव किया है उसे जैसे अपने भीतर जीती है पूर्णिमा का चाँद नदी अपने भीतर सँजोती है प्रतिदिन सूर्य झिलमिलाते सितारे और चुपचाप पीती है ऋतुओं की हवाएँ प्रणय परकाया प्रवेश साधन देहांतरण में रूपांतरण की अंतरंग साधना प्रणयानुभूति में द्विजत्व की एकल अनुभूति राग की आग भिजोती है और अपनी आर्द्रता में दग्ध करती है देहात्मा मन को पर्त दर पर्त खोलता है प्रेम रचता है आकाश नवोन्मेषी संवेदना के लिए प्रणय-विश्वास हृदय-हथेली का मधु-पुष्प सुकोमल प्राणवान प्रेम में होती है सह-उड़ान की शक्ति रचती है जो प्रणय शब्दों में पृथ्वी का मधुरतम स्पर्श सारी क्रूरताओं के विरुद्ध ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्र