।। द्विज का चाँद ।।

द्विज के चाँद के
अँधियारे शेष वृत्त में
धर देती हूँ     तुम्हारा चेहरा
इस तरह
पूर्ण कर लेती हूँ      चाँद को
अपने लिए
कि वह सबका होते हुए भी
सिर्फ़ मेरा होता है
अँधियारे अकेलेपन के विरुद्ध

कभी वृत्त के
आधे चंद्रमा के
शेष हिस्से पर
लिख देती हूँ
तुम्हारा नाम
और
इस तरह
पूर्ण कर लेती हूँ      चाँद को

जैसे
तुम्हारे चेहरे पर
धर के अपने अधर
पूरा करती हूँ
अपने प्रेम का अर्धवृत्त
जो ठिठका रहता है     मेरे भीतर
अभिषिक्त आलिंगन की प्रतीक्षा में

अंतरिक्ष में भी
चाँद लिए रहता है     तुम्हें
मेरे खातिर
वह जानता है     मुझे
तुमसे अधिक
उसके पास दर्ज है
मेरे किशोर मन का
करियाया सन्नाटा
और युवा होने का
सूनापन

चाँद
लखता रहा है     मुझे
और लिखता रहा है
अपनी चाँदनी की स्याही से
शाश्वत प्रेम की रूपहली इबारत
जिसका पाठ मैं करती हूँ नित्य
तुम्हारे लिए

(नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

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