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।। प्रेम का पर्याय ।।

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नदी जानती है चाँद का सुख जब सारी रात चाँद खेलता है उसके वक्ष से कोख तक कि नदी की मछलियों को बनाता है रुपहला चाँद और नदी के अभिसार का अभिलेख हैं रुपहली मछलियाँ कि वे नदी की देह में खोजती हैं     चाँद को जो घुल गया है प्रेम का पर्याय बनकर जैसे तुम मुझमें नदी के बहाव में है नदी के प्यार की धुन ध्वनि से शब्द बनाने के लिए चाँदनी बनती है चाँद की दूतिका चाँद सीखता है नदी से प्रेम की भाषा चाँदनी नदी में घुलकर रुपहली स्याही होकर तरंगों में लिखती है प्यार का भाष्य तुम्हारी साँसों से खींचती हूँ प्रेम की प्राणशक्ति अपने शब्दों की चेतना के लिए कि वे जब खुले और खोलें अपना मौन तो रचें  प्रेम की अमिट प्राकृतिक भाषा ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। सार्थक होने के लिए ।।

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तुम्हारे शब्द छूते हैं       पूरा दिवस आकार लेने लगता है     समय सार्थक होने के लिए कुँवारी आत्मा प्रणय के वसंत में लेती है    जन्म पुनर्जन्म प्रस्फुटित होता है भीतर से बाहर तक प्रणय लहरें छू कर चली जाती हैं और महसूस होती है      पूरी नदी वर्षों तलक बिल्कुल वैसे ही      जैसे आँखें नदी देखकर डुबकियाँ लगा लेती हैं      नदी में और जी लेती हैं प्रणय का कुँवारा आनंद-सुख ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। पक्ष में ।।

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मैं तुम्हारी तरह हूँ तुममें तुम्हारे वक्ष के कैनवास को भरती हूँ    अपने रंगों से तुम्हारी लिखावट में है मेरी तासीर की नमी स्मृतियों में सुनायी देती है    तुम्हारी आवाज़ धड़कनों की स्वर लहरी तुम्हारी आवाज़ तुम्हारी लिखावट तुम्हारे शब्द जो किसी भी धर्म ग्रंथ से नहीं हैं फिर भी आशीषते हैं    हर पल प्रणय को प्रकृति के पक्ष में पृथ्वी के लिए ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। तप रही आहुति ।।

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तुम्हारी हृदय अँजलि में मेरी हथेलियाँ जैसे यज्ञ-वेदिका में तप रही आहुति पुण्य के लिए तुम्हारी आँखों में प्रेम की निर्मल गंगा आकाशी निलाई के साथ समाता है चेहरा मुझे चूमता हुआ तुम्हारी आँखें मुझे पढ़ती हैं प्रेम की पहली पुस्तक की तरह शब्दों में बैठी हैं       अर्थ की गहरी जड़ें ऋग्वेद और पुराणों के अर्थसूत्र खोजती हूँ तुम्हारे शब्दों में तुम्हारी मुट्ठी में हर बार मेरी आँखें रख देती हैं    कुछ आँसू अनकही चिंताओं की गीली तासीर तुम्हारे वियोग में जनमते हैं    अक्षय प्रणय शब्द-बीज जो मेरे ख़ालीपन को खलिहान में बदलते हैं भगवान की प्रतिमा पर चढ़ा मेरा शब्द-पुष्प चरम सौभाग्य बनकर आता है     मेरी हथेली में तुम्हारी हृदय अँजलि के लिए ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। साक्षात्कार ।।

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शब्दों के पास होती है, आत्म चेतना चेतना शब्दों की आत्मा है स्पर्श करती है     सचेतनता के साथ सजग आत्मा को खोल देती है   देह-बंध तोड़ देती है   मोह-व्यामोह शब्द मुक्त करा लाते हैं    आत्मा को देह से कि आत्मा सुन सके आत्मा को आत्मा देख सके आत्मा को आत्मा स्पर्श कर सके आत्मा को शब्दों से और लीन हो सके    आत्मा में मुक्ति के लिए ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। लय-विलय ।।

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प्रेम में साँसें समझ पाती हैं साँसों की भाषा जो हथेलियों से आँखों तक एक हैं मन-देह के बीच अपनी लिपि में अपने लय में अपने शब्दों में अपने अर्थ में लय होती है विलय एकांत में राग की सुगंध और सुगंध का अंगराग लिप जाता है मन वसुधा में प्रणय चाहता है अपनी देह-गेह में प्रिय का हस्ताक्षर संवेदना की जड़ें पसरती जाती हैं    भीतर ही भीतर कि देह-माटी पृथ्वी के समानांतर अपना वसंत जीने लगती है प्रणयाग्नि से तपी देह हो जाती है स्वर्ण-कलश अमृत से पूर्ण प्रणय देह के ईश्वरीय चौखट पर समर्पित करता है     अपना सर्वस्व और विलीन होता है पंच तत्वों में ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

तीन कविताएँ

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।। भिगोने के लिए ।। स्मृतियों में आवाज़ नहीं होती है सिर्फ़ गूँज होती है मन-समुद्र के आवेग की संबंधों में रोशनी नहीं होती है सिर्फ़ उत्ताप होता है प्रणयाग्नि के प्रज्वलन का प्रेम में बरखा नहीं होती है सिर्फ़ बरसात होती है सर्वस्व भिगोने के लिए ।। विमुक्त होने के लिए ।। घुल गई है तुम्हारी ध्वनि शब्दों को आत्मसात कर लिया है चेतना ने        आत्मीय होकर साँसों ... में साँस लेती हैं    तुम्हारी ही आत्मा की ध्वनियाँ तरंगित अनन्य अनुराग छेड़ता है मिलकर     विलक्षण तान लय में जिसके विलय हो जाती है       देह ।। प्राणवान ।। शब्द छूते हैं    देह और देह जीती है     शब्द प्रेम में प्राणवान होती है ऐसे ही देह और ऐसे ही शब्द ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। शब्द-स्पर्श ।।

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शायद हवाओं की साँस ठहर जाती है क्षण भर के लिए जब सितारे लिखते हैं    नई तारीख़ अनुभूति-पट पर प्रथम-प्रणय का राग सूरज हर सुबह नई तारीख़ में झरता है अपनी धूप से जैसे  प्रेम पूरता है   हृदय के अक्षय-स्पंदन-कोष को जैसे   पर्वत जनमते हैं   अपनी स्नेह सरिताएँ शब्दों की शहदीली सुनहरी दीप्तिमान छुअन को जानते हैं     ओंठ जैसे    कवि के अधर पहचानते हैं      अपनी कविता के शब्द वैसे ही     कविता के ओंठ अनुभव करते हैं      कवि के अधर शब्दों की तरह शब्दों में प्रेम की तरह ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

तीन छोटी कविताएँ

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।। सिद्धी ।। प्रेम आत्मा का राग है प्रिय साधता है उसे देह के वाद्ययंत्र में प्रणय-सिद्धियों के निमित्त ।। दुर्गम देह ।। दैहिक महाद्धीपी दूरियों के बावजूद हार्दिक लहरें स्पर्श कर आती हैं     चित्त-तट-बंध और तब मुक्त हो जाती है देह देह-सीमा के दुर्गम बंधनों से ।। रूपांतरण ।। शब्दों में लीन ध्वनियाँ अर्थ में विलीन हो जाती हैं अर्द्धांगिनी की तरह जैसे मैं तुममें ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)