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।। मानसरोवर में ।।

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अपने ओठों से उँगलियों से खिलाते हो पाँखुरी-दर-पाँखुरी सृष्टि पराग की तलाश में जहाँ रच सको अपने प्यार का पहला कुसुम मेरी देह के मानसरोवर में देह की परतों के भीतर स्पर्श रचता है प्यार का भीगा-भीना विलक्षण अनुभूति इतिहास अनकहा प्रेम सुख देह प्रणय का ब्रह्मांड है साँसों की आँखों से छूते हैं स्नेह का अंतरंग कोना तक जहाँ साँस लेता है  ब्रह्मानंद-नद तुम्हारे भीतर एक नदी के रिसाव के लिए जिसमें प्रणय की पुनर्सृष्टि की शक्ति है अदृश्य लेकिन  स्पर्श के भीतर दृश्य मैं विश्वास करती हूँ तुम्हारे प्रेम पर क्योंकि तुम अपने को खोकर प्रेम को पाते हो यही प्रेम का विश्वास है इसी विश्वास में प्रेम धड़कता रहता है    भजन बन कर ।   ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। अंतरंग साँस ।।

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                              तुम्हारा प्यार मेरे प्यार का आदर्श है अपने भीतर बसी तुम्हारी छवि के ओठों से लगकर अकेलेपन की वाइन के ग्लास को सटाकर कहते हैं    चीयर्स जिसमें चीख पड़ती है   आंतरिक साँस जिससे बचाए रखी है अपने जीवन की अंतिम साँस जिसमें जी सकूँ तुम्हारा अमर प्यार बादलों से बादलों के क्षितिज की तरह बन गए हम दोनों प्यार में समुद्र से बने हुए सागर के क्षितिज हैं हम दोनों प्यार में समुद्र को पीता है आकाश आकाश को पीता है समुद्र नदी को जीता है समुद्र वैसे ही जैसे तुम मुझे अपने कोमलतम क्षणों में और स्मृतियों में । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। अनुभूति रहस्य ।।

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                                प्रेम के क्षणों में तुममें से उठे सवालों का जवाब देना चाहती हूँ तुम्हारे हृदय का रिसता-रस मेरे प्रणय का रस है जो तुमसे होकर मुझ तक पहुँचता है प्रेम एकात्म अनुभूतियों की अविस्मरणीय दैहिक पहचान है प्रेम में मन सपने सजाता है तन के लिए और तन जन्म देता है मन के लिए पुखराजी-सपनें प्रेम में मन-तन धरती से समुद्र में बदल जाता है और समा जाते हैं एक-दूसरे में अनन्य राग अनुराग की साँसों में माटी से पानी में बदल जाती है पूरी देह देह के भीतर के बर्फीले पहाड़ बादल की तरह उड़ने लगते हैं देहाकाश में इंद्रधनुषी इच्छाओं के बीच प्रेम में भाषाओं का कोई काज नहीं होता है 'प्रेम' ही 'प्रेम' की भाषा है देश-काल की सीमाओं से परे । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। धर्म से बाहर ।।

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प्रेम को पृथ्वी की पहली और अंतिम चाहत की तरह मैंने चाहा है जब प्रेम ने सृष्टि में जन्म लिया था इसके बाद हम दोनों के हृदय बीज इसने पुनर्जन्म लिया है स्वार्थ के समय ने प्रेम को बहुत मैला कर दिया है और अविश्वास ने प्रेम का साँचा ही तोड़ दिया है जैसे ईश्वर से बने हुए धर्म में ईश्वर बाहर हो गया है जैसे धर्म के भीतर से लोगों ने ईश्वर उठा दिया है वैसे ही प्रेम में अब प्रेम नहीं बचा है प्रेम की पहचान को लोगों ने खो दिया है अपने मानस के धर्म में मैं फिर से ईश्वर रच रही हूँ अपनी आस्था की ताकत से वैसे ही अपने मन के धर्म से तुम्हारे हृदय में 'प्रेम' रच रही हूँ जिसे 'दुनिया' प्रेम के नाम से जाने और जाने कि प्रेम की पहचान क्या है कि वह जगत के जीवन की शक्ति बन सके मेरा प्रेम   किसी भी दौड़ को पाने और पहुँचने का हिस्सा नहीं है ईश्वरीय भावना का ऐकात्मिक सम्मान है समर्पण और विश्वास प्रेम की पहचान शर्तों, अनुबंधों और प्रतिबंधों से परे तुम मेरे मन और अस्तित्व की पहली

।। सुख का वर्क ।।

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मेरा मन तुम्हारे ही मन का हिस्सा है जिस कारण शेष हूँ मैं तुममें अनचाहे, अनजाने हासिल विध्वंस की तपन टूटन की टुकड़ियाँ सूखने की यंत्रणा सीलन और दरारें मीठी, कड़ुआहट और रंगीन जहर सब पर, तुम्हारे 'होने भर के' सुख का वरक लगाकर छुपा लेती हूँ सर्वस्व आँखों की पुतली के कुंड में भरे अपने खून के आँसुओं के गीले डरावनेपन को तुम्हारे नाम में घोल लेती हूँ सघन आत्मीयता के लिए । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। सच ।।

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तुम मुझसे ज्यादा अकेले हो जबकि तुमसे अधिक मैं तुम्हारा इंतजार करती हूँ साँसों के होते हुए भी जिंदा नहीं हूँ जिंदगी तुम्हारे होने का पर्यायी नाम हूँ हम खोज रहे हैं अपना अपना समय एक दूसरे की धड़कनों की घड़ी में मैं अपने समय को तुम्हारी गोद में शिशु की तरह किलकते हुए देखना चाहती हूँ जिसमें तुम्हारा ही अंश बढ़ते हुए अपनी आँखों के सामने देखूँगी प्यार की तरह ।   ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। प्रकृति में तुम ।।

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सूर्य की चमक में तुम्हारा ताप है हवाओं में तुम्हारी साँस पाँखुरी में तुम्हारा स्पर्श सुगंध में तुम्हारी पहचान जब जीना होता है तुम्हें प्रकृति में खड़ी हो जाती हूँ और आँखें महसूस करती हैं मेरे भीतर तुम्हें मैं अपनी परछाईं में तुम्हें ही देखती हूँ क्योंकि मेरी देह तो 'तुम' बन चुकी है मैं तो तुम्हारे प्यार की परछाईं बन कर धरती पर बिछी हुई हूँ जिसे तुम्हारी देह छाया बनकर छूती है कि धरती तक खिल पड़ती है मेरी परछाईं में तुम्हारी खिली मुस्कुराहट 'शब्द' की तरह मैं अपनी परछाईं के कागज में तुम्हारे ओठों के रंग से लिखा हुआ देखती हूँ कि जिसे मेरे ओंठ चूम लेते हैं और आँखों के भीतर एक वसंत खिल पड़ता है तुम, इस तरह मेरी आँखों के भीतर प्यार की पृथ्वी रचते हो जिसे मैं शब्द की प्रकृति में प्रकृति से घटित करती हूँ । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। कोमल और रेशमी ।।

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प्रेम की लिखा-पढ़ी हृदय के कार्यालय में होती है अनुभूतियों की फाइलों में दबे होते हैं प्रणय के रस पगे सजे दस्तावेज प्रेम का खाता एक-दूसरे के हृदय में खुलता है मेरे प्यार से भी अधिक कोमल और रेशमी इस पृथ्वी पर कुछ नहीं बचा तुम्हारे लिए सब कुछ के होते हुए मेरी तरह । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। पुनर्जन्म का सुख ।।

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वह मुझे सुनता है अपने पहले प्यार की तरह वह मुझसे खेलता है बचपन की यादों की तरह वह मुझे खिलाता है अपने सुख का पहला कौर वह मुझे देखता है अपने भविष्य की तरह वह मुझे सहेजता है अपनी हथेलियों की तरह वह मुझे चूमता है अपने अनमोल सपने की तरह वह मेरे मौन को पढ़ता है सबसे सशक्त संवाद की तरह वह मुझे रचता है थकान उतार कर अपने प्यार से वह मुझे देता है पुनर्जन्म का सुख अपनी संतान को जन्म देने से पहले वह मुझमें प्यार जन्मता है सारी स्तब्धताओं के बावजूद मैं उस तरह नहीं चल रही जैसे दुनिया दौड़ रही क्योंकि मैं जानती हूँ जहाँ गति होती है वहाँ गहराई नहीं होती गति में सब कुछ छूटता जाता है आँखें भी नहीं पकड़ पाती हैं । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। अग्निगर्भी शक्ति ।।

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धूप में बढ़ाती हूँ अपनी आत्मा की अग्निगर्भी दीप्ति तुम तक पहुँचती हूँ तुम्हारे लिए अक्षय प्रणय-प्रकाश तुम्हारे मन की खिड़की से पहुँचता होगा निकट से निकटतर कि नैकट्य की नूतन परिभाषाएँ रचती होगी तुम्हारी अतृप्त आत्मा वृक्ष को सौंपती हूँ वक्ष की अंतस की परछाईं अपनी धड़कती आकांक्षाएँ मूँदे हुए स्वप्न झुलसी हुई मन-देह वृक्ष जिसे चुपचाप कहता है अपने झूम-घोल से जो तुम तक मेघ-दूत बन पहुँचता है गहरी आधी रात गए । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। नेह-छाल ।।

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अपनी साँसों के स्कॉर्फ में सहेजती हूँ     सुनहरे बसंत की पीली खुशबू तुम्हारी साँसों की रेत पर 'सनी डे' रचाने के लिए स्वर्णिम इबारत 'समय' पतझर की तरह उतरता है मेरी धड़कनों में गहरे जंगल में अँधेरे की तरह फँसा है      मेरा समय समय की शाखों में हवाओं की तरह उलझकर झटपटाती है मेरी साँस घने जंगल में कुहरे के रंग में अटकी हैं उम्मीदें रात की स्याही से अपनी उँगलियाँ गीली कर धरती पर उतरे हुए सूरज की देह पर लिखती हूँ    तुम्हारा नाम अपने समय के तने की छाल को छील कर उस पर तुम्हारी सहलाई हुई उँगलियों से भीगे अपने नाखूनों से कुरेद कर लिखा है तुम्हारा नाम जिसे मेरी आँखें पढ़ती हैं साँसें चूमकर रचती हैं प्यार की नई अनश्वर भाषा हवाओं में सींजने के लिए जिससे पूरे विश्व के मानव की साँसों की भाषा बदल सके सिर्फ तुम्हारे नाम पर । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। आत्मीय उपासना ।।

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आँसू लिखित शब्दों में होता है    ईश्वर ईश्वर के कंधों पर टिकाती हूँ अपनी आँखें और भूल जाती हूँ     आँसू जो तुम्हारी अनुपस्थिति की आँख से उतरा है मन-गंगोत्री की व्यथा में तुमसे कहने की सारी बातें वियोग में घुल कर आँसू बन जाती हैं अपनी साधना में प्रसाद के रूप में मैं भगवान से तुम्हें और तुम्हारी खुशी माँगती हूँ तुम मेरी आँख की आँख हो मैं तुम्हारी ही आँखों को अपनी दृष्टि बनाकर दुनिया देखती हूँ ओठों ने तुम्हारा नाम पुकार कर अपनी धरती में तुम्हारे ओठों को घर बनाने की अनुमति दी है हथेली ने तुम्हारी हथेली को अपनी संपूर्ण पृथ्वी सौंप दी है स्मृति में तुम्हारा रूप बसाकर ईश्वर की तरह पूजा की है रागिनी में राग की तृषा पर तुम्हारे अनुराग की शक्ति दी है अपनी देह की पृथ्वी मैंने तुम्हारे और तुम्हारी संतान के नाम कर दी है जहाँ वे तुम्हारा नाम लिखें सिर्फ मेरे सुख के लिए तुम्हारे लिए भगीरथ की तरह अपने भीतर भागीरथ की तलाश की है तुम तक पहुँच कर अपने प्रणय-गर्भ में

।। अक्षय-स्रोत ।।

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शब्द तुम्हारी तरह देखते हैं    मुझे और मैं शब्दों को तुम्हारी तरह ईश्वर के प्रेम की छाया है     तुम्हारी आत्मा पर ईश्वर अंश है तुम्हारा चित्त तुम्हारे प्रेम में मैं 'प्रेम' का ईश्वर देखती हूँ तुम्हें छूकर मैं प्रेम का ईश्वर छूती हूँ तुम्हारे कारण पाषाण में बचा है   ईश्वर शब्दों में तुमने रचा है     ईश्वर क्योंकि तुमने ही तुम्हारे अस्तित्व में रचा है ईश्वर इसीलिए तुममें है ईश्वर का प्रेम ईश्वरीय प्रेम पवित्र पारदर्शी प्रणय नदी का उद् गम अक्षय स्रोत । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। शब्दों से खींचती हूँ साँस ।।

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विदेश के प्रवास में अँधियारे के मीठे उजालेपन में चाँदनी, सितारों में जब चमक चुकी होती है चाँद सोता है जब तुम्हारे सपनों में अकेलेपन की पिघलती मोमबत्ती की सुनहरी रोशनी में कभी शब्द तपते हैं ताप में और कभी मैं शब्दों के साथ अपने बाहर की ही नहीं भीतर की भी साँस रोककर शब्दों से खींचती हूँ साँस पसीने से तर-ब-तर मन की उमसती कसक को पसीजी हथेली में रखती हूँ शब्द बनाकर तुम्हारे लिए लिखे जानेवाले शब्द हों वे जैसे हृदय-मंजूषा में प्रेम की पीड़ा के बहुत एकांत में चुपचाप जन्म लेते हैं शब्द जैसे आधी रात को पहर बदलता है हवाओं की साँस ठहर जाती है क्षण भर को तब सितारे लिखते हैं      नई तारीख नया दिवस सूरज हर सुबह छींटता है नई उत्सव रश्मियाँ जैसे वे भी शब्द-बीज हों अगले भविष्य के लिए । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। आकाशगंगा ।।

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तुम्हारे बिना समय     नदी की तरह बहता है मुझमें मैं नहाती हूँ     डर की नदी में जहाँ डसता है अकेलेपन का पनीला     साँप कई बार मन-माटी को बनाती हूँ     पथरीला जिसकी देह को अपने स्पर्श से तराशकर तुमने बनाया है    मोहक सुख की तारीखों को दफन करता है    समय मन के कब्रिस्तान में कपोत-सी उड़ जाती हैं - साँसें तुम्हारे वक्ष में धड़कने के लिए तुम्हारी स्मृतियों की परछाईं में पकड़ती हूँ तुम्हें अपने भीतर के मौन में जीती हूँ   तुम्हारा ईश्वरीय प्रेम तुम्हारी चुप्पी में होता है तुम्हारा सलीकेदार अपनापन अकेले के अंधेरेपन में तुम्हारा नाम     भगवान् ब्रह्मांड का एक अंग देह की आकाशगंगा में तैरकर आँखें पार उतर जाना चाहती हैं अपने ठहरे हुए समय के शिखर से पटकर तुम्हारी धड़कनों के साथ चलना चाहती हैं     मेरी साँसें ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। महामंत्रोच्चार ।।

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प्रतिदिन सूर्योदय के साथ आदित्यस्त्रोत के महामंत्रोच्चार के बाद सूर्य से नमित-नयन प्रार्थना की दमकते प्रणय की जो प्राण शक्ति बने और आत्मा को दीप्तमान् करे अपने प्रकाश-लेप से अपनी हर धड़कन में वर्तमान की सुबह में चीखी हूँ पक्षियों की चहचहाहट में प्रेम से अधिक अपने प्रिय की पुकार में मेरी आत्मा प्रिय सहचर की खोज में हर साँस में रही है एकाकी यायावर   उसका आत्मीय अकेलेपन में पहचान ले उसे और बगैर उसके कहे उसके हृदय की भाषा को सुन मौन निमंत्रण में बन जाए उसका उसकी देह से भी अधिक आत्मीय सहचर ।   ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। तरंग ।।

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                              जिंदगी शैंपेन की एक बूँद लेकिन, तुम्हारे होने पर   अकेले में 'वह' जहर की एक बूँद है मौत के डर से भरी   जिंदा देह में जिंदगी की मौत अपने भीतर एक 'मसान' तट को जन्म देना है । मेरी ऑंखें मछली की आँखों की तरह प्रूप-समुद्र तैरती तुम्हारी आँखों के नॉर्थ-सी में जहाँ से सूर्यास्ती-सिंदूर को अपनी आँखों की चुटकी में लेकर मेरे भाल पर भरा था तुमने   संध्या के सूर्यास्ती अग्नि-कुंड की परिक्रमा की थी मेरी हथेली ने तुम्हारी हथेली की भावी भाग्य रेखा में पहनाई थी   सूर्य रश्मियों से लहरों में बनी तरंगित वरमाला   नॉर्थ-सी को अपनी अँजुली में लेकर तुम्हारी साँसों ने कसम खाई थी आजन्म-समुद्र की तरह अपने प्यार से भर देने की   तुम नॉर्थ-सी हो और मैं तुम्हारे भीतर समाई तुम्हारे मन की सामुद्री मछली जिसकी आँखों और मन की मौन की भाषा पहचानते हो तुम । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। अवगाहन के लिए ।।

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मैं सेमल के फूल-सी अनुभूति की मुट्ठी में समेट लेना चाहती हूँ प्रणय का संपूर्ण सुख तुम्हारी हथेली थामकर बेपनाह सूनी आँखों को रखना चाहती हूँ विश्वास के सुकोमल घर में मैं प्रकृति का अनन्य सुख जानने के लिए तुम्हारे सम्मुख होती हूँ समर्पित देह से नहीं देह से रिसकर एक अनंत राग के अवगाहन के लिए अपने भीतर के पराएपन से मुक्ति के लिए मैं तुम्हारे अपनेपन में समा जाना चाहती हूँ और समाती हूँ चुपचाप कभी तुम्हारे विश्वास की प्रणय घाटी में कभी तुम्हारे आत्मीय अधर के अमृतकुंड में मेरे ही प्राण तुम्हारे प्राण बनकर धड़कते हैं अब मेरे वक्ष भीतर तुम्हारी छवि छूती है मेरी मन-छाया तुम्हारी बेचैन साँसों की कसक रिस आती है प्रणय की रश्मि बनकर स्वतंत्र साँस से आती है    बाँसुरी की धुन जो कृष्ण ने बजाई थी आत्मा के प्रणय-नाद के निनाद के लिए ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

सूरीनाम में रहने वाले प्रवासियों की संघर्ष की गाथा है 'छिन्नमूल'

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प्रवासी भारतीय लेखकों में पुष्पिता अवस्थी का नाम प्रतिष्‍ठा से लिया जाता है । पहली बार किसी प्रवासी भारतीय लेखिका ने सूरीनाम और कैरेबियाई देश को उपन्‍यास का विषय बनाया है और गिरमिटिया परंपरा में सूरीनाम की धरती पर आए मेहनतकश पूर्वी उत्तर प्रदेश के मजदूरों यानी भारतवंशियों की संघर्षगाथा को शब्‍द दिए हैं । यह उन लोगों की कहानी है जो अपनी जड़ों से कटे हैं, जिन्‍होंने पराए देश में अपनी संस्‍कृति, अपने धर्म और विश्‍वास के बीज बोए और पराई धरती को खून-पसीने से सींच कर पल्‍लवित किया । सूरीनाम पर इससे पहले डच भाषा में उपन्‍यास लिखे गए पर वे प्राय: नीग्रो समाज के संघर्ष को उजागर करते हैं । सरनामी भाषा में भी कुछ उपन्‍यास लिखे गए पर वे सर्वथा डच सांस्‍कृतिक आंखों से देखे गए वृत्तांत हैं । यह उपन्‍यास एक तरफ हिंदुस्‍तानी संस्‍कृति के दोगले चेहरों की असलियत अनावृत करता है तो दूसरी तरफ एक सौ साठ बरस के अंतराल में यहां पनपी सूरीनाम हिंदुस्‍तानी संस्‍कृति को भी उद्‍घाटित करता है । अतीत में जब पाल वाले जहाजों से हिंदुस्‍तानी यहां लाए गए थे तो उन पर गोरे डच कोड़े बरसाते थे, आज यहां उ

।। अनंग पुष्प ।।

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तुम प्रेम का शब्द हो विदेह प्रणय की सुकोमल देह अनंग पुष्प की साकार सुगंध मेरी अनुभूति का आलिंगी अभिव्यक्त रूप कि अधर धरते ही तुम्हारे ओंठ के भीतर फूटता है अजस्र अमृत कुंड जिसमें रह रह कर तपती हूँ अपनी ही ज्वालामुखी की आँच में लावा के सुख को जानने के लिए अपनी सी साँसों की हिमानी हवाओं में बर्फ होती देह तुम्हारी स्मृतियों के स्वप्न से पिघलती है अपनी ही प्यास को बुझाने के लिए पीती हूँ अपनी ही देह का पिघलाव नयन-कुंड में जो सुरक्षित है विरह-जल का पर्याय बनकर आँसू होकर तुम्हारे सामने न होने पर दर्द से जनमे आँसुओं को दर्द से जिया है प्रतीक्षा की आग के ताप को आँसू    चुप नदी की तरह पीते हैं अपने कोशिश भरे बहाव में इंतजार की टूटी लकीरें तोड़ती हैं     संवेदनाओं की हिम्मत प्रतीक्षा के शाब्दिक पुल समय के अंतराल पर असमर्थ हैं दर्द से जनमे आँसू बनाते हैं   आँसुओं के दर्द का पुल समय को लाँघने के लिए प्रतीक्षा से थके चेहरे की उदास सिलवटों और तनहाई की चिमड़ी झुर्रियों को

।। देह की चाक से ।।

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सब कुछ साँस ले रहा है मेरी देह में संपूर्ण सृष्टि तुम्हारी प्रकृति बनकर एक अंश में धड़क रही है मेरे भीतर अधरों में अधर आँखों में आँखें साँसों में साँसें हथेली में स्पर्श हृदय में साँस ले रही है तुम्हारी ध्वनि अनहद नाद की तरह अपने सर्वांग में मैं जीती हूँ   तुम्हारा सर्वस्व तुम्हारे शिवत्व को साध रही हूँ   अपनी शक्ति में तुम्हारा अंतस और बाह्य गढ़ रही हूँ अपनी देह की चाक में कुम्हारिन की तरह तुममें खुद को खोकर ही जाना है प्रेम में जीना और अर्धनारीश्वर हो जाना लेकिन सर्वस्व विसर्जन की समर्पिणी साधना के बाद देह के ब्रह्मांड में नव नक्षत्र की तरह अपनी धड़कनों में चमक रहा है तुम्हारा प्रणय देह की कांति बनकर स्फूर्ति रच रही है मेरे ही भीतर प्रेम प्रेम का स्थायी सुखोत्सव गर्भ की आँख में लगाया था तुमने काजल लाल आँसू बन कर रिस गया वह गहराई से जिए गए सघन संबंधों को भरा था गहरे अर्थ से कि इससे पहले जैसे यह शब्द अर्थ के बिना था अनुभूति की दुग्ध नलिकाओं से उतरने लगा

।। आँसू छुपाकर ।।

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आँसू छुपाकर रोती हैं     आँखें जैसे नजरें बचाकर मिलती हैं     नजरें ओंठ सहेज रखते हैं स्पर्श का कोमल सुख जैसे शब्दों में शेष है नाजुक अर्थ-छुअन यादें, याद करती हैं यादों की सुगंध मन के कहीं कोना भर मटियाली जगह पर उग आता है    प्रिय के ओंठों से लगाया प्यार का पेड़ कि पूरी देह 'कल्पवृक्ष' से भी जादुई हो जाती है जिस पर उकेरा जा सके तुम्हारा नाम क्योंकि तुम अनोखे प्रणय के आविष्कर्ता हो तुम्हारी आँखों के मिलान और ओंठों के स्पर्श से जन्म लेते हैं    नए शब्द अपने अद् भुत नयनालिंगन में रचते हैं बिना छुए छुअन की अनबोली मीठी भाषा जिसका स्वाद पूरी देह में घुलकर रचता है मिठास का आनंद स्वाद से परे जाकर । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। रेत की नदी ।।

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उदास मन की जड़ें  रेत की नदी में हैं प्यासी और प्यासी तुम्हारे सुख के अलावा कोई खुशी नहीं हँसा पाती है   उदासी को अपनी ही आँखें नहीं सोख पाती हैं आँसुओं के चिह्न किसी ईश्वरीय-मौन में नहाकर उदासी धो लेना चाहती है अपना करुण चेहरा तुम्हारी अनुपस्थिति में चुपचाप कहाँ से उग आते हैं नागफनी के काँटे चेहरे में शब्दों में साँसों में प्रणय उतार फेंको    उदासी का समुद्री मछुआरी जाल जिसमें भगवान के प्यार के आनंद की चमक भी घुटन में दब जाती है । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। रक्त-बूँद ।।

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                              हर पल के पार जाने के लिए खून का बूँद-बूँद देती हूँ और परे होती हूँ समय के तुम्हारे पास पहुँचने के लिए तुम्हारी हथेलियों में है मेरी जिंदगी जिसे ओठों से पीकर ही जी पाती हूँ तुम्हारी हथेली एक वृक्ष की तरह मेरी हथेली में खिल रही है तुम्हारी मुस्कुराहट की तरह जिसे देखने के लिए ही ऑंखें खुलती हैं वरना आँखों के घर में मैं तुम्हारे साथ हूँ तुमसे दूर हो कर भी बूँद-बूँद खून देकर जी पाती हूँ अपनी अस्मिता की  जिद की लड़ाई नवरात्र की साधना में तुम हो मेरी सिद्धि मेरे सारे सपने तुम्हारी आँखों में पलते हैं जिसकी उजली कोमलता मैं चूम कर महसूस करती हूँ तुम्हारी जिंदगी की तारीखें मेरी जिंदगी की डायरी के पन्ने हैं जिनमें मैं तुम्हारा नाम लिखकर तुममें तुम्हारे सपने भरती हूँ । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। दर्पण ।।

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तुम्हारी अनुपस्थिति में घर का दर्पण रहता है उदास मेरी तरह     सूनेपन से संपूर्ण घबराए हुए स्वप्न देखते हैं    अपना चेहरा समय छोड़ जाता है अपने कुछ प्रश्नचिह्न परछाईं में उतर आए हो तुम स्मृतियों से छनकर मोहक तसवीर में आँखों के करघे पर अदृश्य आँखें बुनती हैं अलौकिक स्मृति पट्ट स्मृति अधर लिखते हैं अदृश्य हृदय भाष्य स्वप्न खोजते हैं स्मृतियाँ स्मृतियाँ देखती हैं      नवस्वप्न अपने अकेलेपन में तुम्हारी अनुपस्थिति में स्मृतियाँ रचती हैं उपस्थिति का सौंदर्यशास्त्र स्वप्न चुपचाप रचते हैं तुम्हारी अनुपस्थिति उपस्थिति का अनुपम आत्मीय लास्य चाँद की चाँदनी की तरह देह की काँच के भीतर पसर जाता है तुम्हारा धवल प्रेम चाँद की विलक्षण नरमाहट अनपेक्षित दक्षतापूर्वक पहुँचती है    पृथ्वी तक मन के खेतों के बीच शब्दों की पगडंडियाँ दूर तलक उनका भविष्य बाँचती हुई दौड़ जाती है मनतलक तुम्हारी नसों के रक्त से अपनी छवि को छूती हूँ     अपने रक्त में तुम्हारी छवि में पूरा विश्व उग आता है     मुझमें विश्व में

।। प्रतीक्षा के स्वप्न बीज ।।

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प्रतीक्षा में बोए हैं  स्वप्न बीज उड़ते समेल के फाहों को मुट्ठी में समेटा है विरोधी हवाओं के बीच प्रतीक्षा में मन के आँसुओं ने धोई है मन की चौखट और आँखों ने प्राणवायु से सुखाई है जमीन अधरों ने शब्दों से बनाई है   अल्पना और धड़कनों ने प्रतीक्षा की लय में गाए हैं     बिलकुल नए गीत प्रतीक्षा में होती हैं    आहटें पाँवों की परछाईं हथेलियों की गुहारती पुकार आँखों के आले में प्रिय के आने का उजाला समाने लगता है और एक सूर्य-लोक खिल उठता है प्रतीक्षा के सन्नाटे में कौंधती है आगमन अनुगूँज और शून्यता में तिर आती हैं पिघली हुईं तरल आत्मीयता की लहरें कि समाने लगता है अपने भीतर स्मृतियों की परछाईं का अमिट संसार आँखों में साँसों में पसीज आई हथेली में आँखों की पृथ्वी पर होती हैं     तुम्हारी मन ऋतुएँ नक्षत्र से निरखते हैं तुम्हारे नयन निष्पलक चुपचाप परखती हैं     आँखें अलौकिक प्रभालोक तुम्हारे प्रणय का अक्षय आकाँक्षा वलय । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। वियोग सुख ।।

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तुमसे छुपाकर जीती हूँ तुम्हारा वियोग आवाज में ही दबा ले जाती हूँ रुलाई लिखने से पहले शब्दों से खींच लेती हूँ बिछोह की पीड़ा तुम तक पहुँचने वाले सूर्य और चंद्र में चमकने देती हूँ चूमा हुआ प्रेम बिछोह के दर्द को घोलती हूँ रक्त भीतर कि आँख में जन्म न लें आँसू ओठों की तड़प को अपनी ही उँगलियों से मसलती रहती हूँ बेबसी के दारुण क्षणों में फिर भी ओंठ सिसकते ही रहते हैं साँस की तरह अपने प्रेम के बिछोह में ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। धुन ।।

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घर में तुम घर की तरह बचे हो मुझमें      मेरी तरह तुम्हारे जाते हुए पाँवों को नहीं रोक सके आँख के आँसू पर, तुम्हारी परछाईं बनी है मुझसे तुम्हारे साथ तुम्हारी खामोशी में समाया है      मेरा मौन जैसे    तुम्हारे शब्दों में मेरे शब्द तुम्हारी आवाज में मेरी धुन तुम्हारे जूतों को तुम्हारे पाँव के बिना रहने की आदत नहीं पर पाँव भीतर होने पर भी उनका 'जी' नहीं भरता है तुम्हारी प्रतीक्षा में सिकुड़ रहे हैं हमकदम होने के लिए तुम्हारी कंघी को फिरा लेती हूँ अपने केशों में तुम्हारी सहलाती उँगलियाँ हैं       वे तुमसे उतरे हुए कपड़े रहते हैं मेरे सिरहाने तुम्हारी अनुपस्थिति को भरती हूँ तुम्हारी सुगंध के वक्ष से जिस पर मेरा सिर महसूसता है तुम्हें और सुगंध से मिलता है रास्ता तुम तक पहुँचने के लिए घनेरी रात में तुम्हारी छोड़ी हुई हर चीज को छूती हूँ कि जैसे अपने स्पर्श में से बचे हो तुम हर वस्तु में कि तुम्हारे देखे गए आईने में आदमकद देखती हूँ खुद को अहल्या की तरह पुनर्प्राणार्जि

।। देह-विदेह ।।

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दो गोलार्द्धों में बाँट दिए जाने के बावजूद पृथ्वी भीतर से कभी दो ध्रुव नहीं होती मेरी तुम्हारी तरह तुम्हारी साँसें हवा बनकर हिस्सा होती हैं मेरे बाहर और भीतर की प्रकृति तुमसे सृष्टि बनती है । तुम्हारा होना मेरे लिए रोशनी है । तुम्हारा वक्ष धरती बनकर है मेरे पास तुम्हारे होने से पूरी पृथ्वी मेरी अपनी है घर की तरह चिड़ियों की चहक में तुम्हारे ही शब्द हैं मेरी मुक्ति के लिए मुक्ति के बिना शब्द भी गले नहीं मिलते हैं मुक्ति के बिना सपने भी आँखों के घर में नहीं बसते हैं । मुक्ति के बिना प्रकृति का राग भी चेतना का संगीत नहीं बनता है । मुक्ति के बिना आत्मा नहीं समझ पाती है प्रेम की भाषा मुक्ति के बिना सब कुछ देह तक सीमित रहता है मुक्ति में ही होती है देह   विदेह । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। एकांत रातें ।।

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समय की हवाओं की धार उतारती हैं उँगलियों से नाखून और याद आती है तुम्हारी हथेली की पृथ्वी जो मेरे कटे हुए नाखूनों को भी अपनी मुट्ठी की मंजूषा में सहेज रखना चाहती थी तुम्हारी हथेली की अनुपस्थिति में पृथ्वी छोटी लगती है बहुत छोटी जहाँ मेरे टूटे नाखून को रखने की जगह नहीं है न ओठों के शब्द और न आँखों का प्यार जिन हथेलियों में सकेल लिया करती थी भरा-पूरा दिन एकांत रातें बची हैं   उनमें करुण बेचैनी सपनों की सिहरनें समुद्री मन की सरहदों का शोर तुम्हारी आँखों में सोकर आँखें देखती थीं भविष्य के उन्मादक स्वप्न तुम्हारे वक्ष में सिमटकर अपने लिए सुनी है समय की धड़कनें जो हैं सपनों की मृत्यु के विरुद्ध । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। अनोखे शब्द ।।

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समुद्र-पार की उड़ान से पहुँचा है भारी हैं     उसके पंख अलौकिक है     प्रेम जो समर्पित होता है समुद्री दूरी के बावजूद प्रतीक्षित और विरल जीवन-स्पर्श के लिए तुम्हारे-अपने संबंधों के लिए रची है मैंने एक अनूठी भाषा जिसके शब्द रातों की तनहाई और नींदों के सपनों से बने हैं खुली आँखों में सपनों का घर है आँखों के पाँव पहचानते हैं हृदय का रास्ता काँच हुई देह पर गिरते हैं     ओठों के बूँद-शब्द पिघलता है     रंगों का सौंदर्य अकेलेपन की आग में स्मृतियों की गीली रेत पर चलती हैं      अधीर आकांक्षाएँ अभिलाषाएँ वेनेजुएला के राष्ट्रीय पुष्प-वृक्ष 'ग्रीन हार्ट' का पर्याय नहीं है जो सिर्फ एक दिन के लिए हवाओं में खिलता है अपनी साँसों में और जीता है जीवन सौंदर्य-बोध के लिए तुम्हारा     अपना प्रेम अलौकिक प्रणय-नदी का लौकिक तट तटबंध हैं         मैं और तुम पूर्णिमा का सौंदर्यबोधी चाँद मन भीतर पिघलकर रुपहला समुद्र बनकर समा जाता है आँखों की पृथ्वी में अपनी जगह बनाते हुए महासागर की तरह

।। प्राणाग्नि ।।

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अशोक वृक्ष की तरह आवक्ष लिया है     तुमने साँसों ने लिखी है अछोर प्रणय की गुप्त-लिपि जो तुम्हारे मन की जड़ों तक पहुँचती है तितिक्षा से मिलने के लिए मेरे-तुम्हारे प्रणय की साक्षी है    प्राणाग्नि अधरों ने पलाश-पुष्प बन तिलक किया है    प्रणय भाल पर मन-मृग की कस्तूरी जहाँ सुगंधित है साँसों ने पढ़े हैं     अभिमंत्रित सिद्ध आदिमंत्र एक-दूसरे के देह कलश के अमृत जल ने पवित्र की है देह जो प्राणवंत हुई है भीग-भीग कर सृष्टि की सुकोमल आर्द्र पुष्प पाँखुरी अधर ने अपने मौन स्पर्श से लिखे हैं अधरों पर प्रणय के अघोषित शब्द जिसे स्पर्श की आँखें जानती हैं     पढ़ना देह के हवन-कुंड में पवित्र संकल्प के साथ दी है अपने अपने प्राणों की चिरायु-शक्ति प्रणय-शिशु के चिरंजीवी होने के लिए प्राण-प्रतिष्ठा की है साँसों की देह-माटी में तुमने रोया है अपने प्रणय का प्रथम बीज तुम्हारे अधरों ने लिखा है मेरे अधरों पर प्रथम प्रणय का संविधान प्रेम का नया संयुक्तानुशासन एकत्व और एकात्मकता के लिए प्रेम का सि
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।। स्मृतियों का स्पर्श ।। 'अकेलापन' पतझर की तरह उड़ता फड़फड़ाता है । तुम्हारी तस्वीर से उतरता है स्मृतियों का स्पर्श देह मुलायम होने लगती है तुम्हारी चाहत की तरह तुम्हारे शब्द सपनों की आँख हैं  जिससे रचती हूँ भविष्य   तुम्हारी हथेलियों ने मेरी हथेली में छोड़ा है    भावी रेखाओं का छापा जैसे मेरे हृदय ने तुम्हारे हृदय ने छोड़ा है     अपनेपन का विस्मरणीय स्मृति चित्र कि तुम्हारे प्राणों में मैं अपने पूर्ण को देखती हूँ तुम्हारी साँसों से लेना चाहती हूँ     साँसों की शक्ति जिससे मेरे भीतर तुम्हारे सपने जी सकें वैसे ही       जैसे चाहत से गर्भ में मुझसे साँस ले रहा है शिशु तुम्हारे नाम को लिख रहा है मेरे गर्भ की दीवारों में और रक्त में सान रहा है तुम्हारे बीज का रस सुगंध जो प्रणय का प्रथम प्राण बीज है तुम्हारे नाम का मेरी देह भूमि को मातृभूमि में तब्दील करते हुए । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। सूखी गंगा ।।

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मेरे ओंठ में सूख गई है     नदी अकेलेपन की रेत की नदी है     ओंठ दो बूँद की प्यास में देह को तपाते हुए अँधेरे में बदल चुकी आँखों में काले हो चुके हैं     सपने दिन की कोई रोशनी कठफोड़वा की तरह देह के तने में नहीं बना पाती    कोटर भावी प्रकाश शिशु के प्रसव के लिए दुनिया की मांसाहारी दृष्टि से थक चुकी आँखें तुम्हारी आँखों की गोद में सिर रखकर तुम्हारी देह की नदी में डूब कर नहाते हुए विश्राम करना चाहती है अगली सदी तक तुम्हारी आँखों के साथ के रास्ते से दौड़ने के लिए पहुँचने के लिए अपने हृदय की तरह तुम बनाए रखना चाहते हो मेरा मन तन और समय लाल स्याही की तरह तुम्हारे ओठों ने भरी है मेरे मन के पृष्ठों की माँग जो मेरे तुम्हारे संबंधों का दस्तावेज है     ऐतिहासिक प्रणय-कथाओं से परे नवीन प्रणय का आधार पृष्ठ ईश्वरीय कानून का घोषित दस्तावेज मेरे-तुम्हारे शब्द ।  ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

पुष्पिता अवस्थी सम्मानित हुईं

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भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने हाल ही में आयोजित हुए एक भव्य तथा गरिमापूर्ण समारोह में पुष्पिता अवस्थी को 'पद्मभूषण डॉक्टर मोतुरी सत्यनारायण अवॉर्ड' से सम्मानित किया । 1989 में स्थापित केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा वर्ष 2002 से हर वर्ष दिया जा रहा यह अवॉर्ड प्रतिष्ठित हिंदीसेवी सम्मान अवॉर्ड का एक हिस्सा है, जो दुनिया के विभिन्न देशों में हिंदी को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लोगों को दिया जाता है । भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा समर्थित इस अवॉर्ड की दुनिया भर में प्रतिष्ठा 'ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पॉयर' जैसी है । कानपुर में जन्मी, बनारस में पढ़ने और पढ़ाने वाली और अब नीदरलैंड में 'हिंदी यूनिवर्स फाउंडेशन' के निदेशक के रूप में हिंदी के पठन-पाठन की जिम्मेदारी निभा रहीं  बहुमुखी प्रतिभा की धनी पुष्पिता अवस्थी को सम्मानित करते हुए राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने प्रशंसा पत्र, शॉल और पाँच लाख रुपए उन्हें सौंपे । 

।। अपनापन ।।

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तुम्हारी मुट्ठी में है मेरी हथेलियाँ बर्लिन शहर के बीच ढही हुई दीवार के बाद जैसे साँझ की निलाई के साथ आँखों में समाता है तुम्हारा चेहरा द्धितीय विश्वयुद्ध बाद बसे हुए बर्लिन शहर की मुस्कुराहट की तरह मुझे चूमते हुए तुम्हारे अधर जैसे      सोखते हैं इतिहास और शब्दकोष से अर्थ की गहरी जड़ें जो सोयी हुई हैं विश्व युद्धों के इतिहास में ऋग्वेद की ऋचाओं में उपनिषद, पुराण और जातक कथाओं के अर्थ-सूत्रों में तुम्हारी मुट्ठी अक्सर छूट जाती है मेरी हथेली में विश्व के अनकहे संकटों को कहने के लिए जिन्हें गहरी रात गए आँखें पढ़ती हैं अपनी ही हथेली जिसमें तुम्हारी हथेली ने रचा है       अनरचा इतिहास तुम्हारी अनुपस्थिति को रोपती हूँ       शब्दों में तुम्हारे शब्द-बीजों से उगाती हूँ कविता की फसल प्रेम और आज के समय के लिए जो मेरे खालीपन को खलिहान में तब्दील कर सके ईश्वर-प्रतिमा पर चढ़ा हुआ पुष्प-हार कभी आ जाता है जैसे हथेलियों में चरम सौभाग्य सुख की तरह वैसे ही तुम्हारी आँखें सर्वस्व सौंपत

।। गदराई हुई नदी ।।

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तुम्हें अवतरित करती हूँ स्मृतियों की देह में जहाँ से प्रवेश करते हो तुम सर्वाङ्ग में सूर्य रश्मियाँ चिड़ियों की तरह गुनगुनाने लगती हैं      अनोखे शब्द कहीं भीतर से भीतर तक अनुभूति में उतरने लगती है उष्म तासीर पूरी संजीदगी के साथ भोर होने से पहले ही महसूस होते हैं    अजोरे के             'वे' कुछ शब्द             तुम्हारी हथेली सरीखे             अपने कंधे पर जो अपने स्पर्श में रचते हैं      विश्वास की भाषा             पीठ पर             नई इबारत             निर्मल             अलिखित ही संवेदनाओं की पोरों से कि अनुभव होते हो तुम मुझमें ही उतरे हुए जैसे       धूप             बरखा             ऋतुएँ और उनकी सुगंध             अपनी तासीर के साथ ऐसे में स्मृतियों में तुम्हारे प्रतिबिंब के उझकते ही मैं महानदी हो जाती हूँ     अमेज़न सरीखी प्रवाहित होने लगता है      मुझमें जीवन             तुम्हारी बाँहों के दोनों तटों बीच             मैं उठने लगती हूँ

दो कविताएँ

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।। एकात्म अवस्था ।। देह अंतरिक्ष के नक्षत्र हैं नयन और अधर सूर्य और चन्द देह में देह का लीन हो जाना और फिर विलीन विदेह प्रणय की एकात्म अवस्था ।। स्मृति-भवन ।। शब्दों से परे जाकर रचे जाते हैं     शब्द प्रेम में संप्रेषण की सरस भाषा प्रेम से परे जाकर रचती है प्रेम बह सकें जिसमें बाधाओं के पाषाण-खंड और बनाये 'घर' जो मृत्यु के बाद भी शेष रहे स्मृति-भवन स्वरूप ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

तीन कविताएँ

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।। ओढ़नी की रंगीनियाँ ।। वह पहनता है     मेरी आँखें अपने चश्में की तरह वह धारण करता है     मेरा समय अपनी घड़ी की तरह वह सुनता है        मेरे ही शब्द अपनी आवाज में वह देखता है         अपने सपनों में मेरी ओढ़नी की ही रंगीनियाँ प्रेम में ।। सुंदरतम रहस्य ।। ख़ुद को छोड़ दिया है      मुझमें जैसे      शब्दों में छूट जाता है     इतिहास सपनों की कोमलता आकार लेने लगती है      सच्चाई में अनुराग का रंग उतरने लगता है      देह में पलकों में लरजने लगते हैं ऋतुओं के सुंदरतम रहस्य आँखें       ओंठों की तरह मुस्कुराने लगती हैं सिर्फ़, तुम्हें सोचने भर से ।। विश्वास के पर्याय ।। बहुत चुपचाप व्याकुल चित्त में गूँथती है     शब्दों की परछाईं साँसों में      सुगंध धड़कनों में       आवाज़ सब पर्याय हैं       प्रेम में स्पर्श के लिए तृषा के क्षणों में उसे सिर्फ़ 'प्रेम चाहिए' जैसे       प्रकृति को वसंत अपने सिरहाने रखती है        प्रिय के शब्द विश्वास के पर्याय ('भोजपत्र