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।। गदराई हुई नदी ।।

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तुम्हें अवतरित करती हूँ स्मृतियों की देह में जहाँ से प्रवेश करते हो तुम सर्वाङ्ग में सूर्य रश्मियाँ चिड़ियों की तरह गुनगुनाने लगती हैं      अनोखे शब्द कहीं भीतर से भीतर तक अनुभूति में उतरने लगती है उष्म तासीर पूरी संजीदगी के साथ भोर होने से पहले ही महसूस होते हैं    अजोरे के             'वे' कुछ शब्द             तुम्हारी हथेली सरीखे             अपने कंधे पर जो अपने स्पर्श में रचते हैं      विश्वास की भाषा             पीठ पर             नई इबारत             निर्मल             अलिखित ही संवेदनाओं की पोरों से कि अनुभव होते हो तुम मुझमें ही उतरे हुए जैसे       धूप             बरखा             ऋतुएँ और उनकी सुगंध             अपनी तासीर के साथ ऐसे में स्मृतियों में तुम्हारे प्रतिबिंब के उझकते ही मैं महानदी हो जाती हूँ     अमेज़न सरीखी प्रवाहित होने लगता है      मुझमें जीवन             तुम्हारी बाँहों के दोनों तटों बीच             मैं उठने लगती हूँ