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मार्च, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।। अपनापन ।।

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तुम्हारी मुट्ठी में है मेरी हथेलियाँ बर्लिन शहर के बीच ढही हुई दीवार के बाद जैसे साँझ की निलाई के साथ आँखों में समाता है तुम्हारा चेहरा द्धितीय विश्वयुद्ध बाद बसे हुए बर्लिन शहर की मुस्कुराहट की तरह मुझे चूमते हुए तुम्हारे अधर जैसे      सोखते हैं इतिहास और शब्दकोष से अर्थ की गहरी जड़ें जो सोयी हुई हैं विश्व युद्धों के इतिहास में ऋग्वेद की ऋचाओं में उपनिषद, पुराण और जातक कथाओं के अर्थ-सूत्रों में तुम्हारी मुट्ठी अक्सर छूट जाती है मेरी हथेली में विश्व के अनकहे संकटों को कहने के लिए जिन्हें गहरी रात गए आँखें पढ़ती हैं अपनी ही हथेली जिसमें तुम्हारी हथेली ने रचा है       अनरचा इतिहास तुम्हारी अनुपस्थिति को रोपती हूँ       शब्दों में तुम्हारे शब्द-बीजों से उगाती हूँ कविता की फसल प्रेम और आज के समय के लिए जो मेरे खालीपन को खलिहान में तब्दील कर सके ईश्वर-प्रतिमा पर चढ़ा हुआ पुष्प-हार कभी आ जाता है जैसे हथेलियों में चरम सौभाग्य सुख की तरह वैसे ही तुम्हारी आँखें सर्वस्व सौंपत