।। अवगाहन के लिए ।।























मैं सेमल के फूल-सी
अनुभूति की मुट्ठी में
समेट लेना चाहती हूँ
प्रणय का संपूर्ण सुख
तुम्हारी हथेली थामकर

बेपनाह
सूनी आँखों को
रखना चाहती हूँ
विश्वास के सुकोमल घर में

मैं
प्रकृति का अनन्य सुख
जानने के लिए
तुम्हारे सम्मुख होती हूँ समर्पित
देह से नहीं
देह से रिसकर
एक अनंत राग के
अवगाहन के लिए

अपने भीतर के
पराएपन से मुक्ति के लिए
मैं तुम्हारे अपनेपन में
समा जाना चाहती हूँ
और समाती हूँ चुपचाप
कभी तुम्हारे विश्वास की प्रणय घाटी में
कभी तुम्हारे आत्मीय अधर के अमृतकुंड में

मेरे ही प्राण
तुम्हारे प्राण बनकर
धड़कते हैं अब
मेरे वक्ष भीतर

तुम्हारी छवि
छूती है मेरी मन-छाया
तुम्हारी बेचैन साँसों की कसक
रिस आती है प्रणय की रश्मि बनकर

स्वतंत्र साँस से
आती है    बाँसुरी की धुन
जो कृष्ण ने बजाई थी
आत्मा के प्रणय-नाद के
निनाद के लिए

('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

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